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Adultery तेरे प्यार मे.... (Completed)

HalfbludPrince

मैं बादल हूं आवारा
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#57

“नजरे झुका के हमसे छिपा के तुम जा रही हो जाना ” मैंने निशा के हाथ को पकड़ते हुए कहा.

निसा- जाग रहे हो तुम.

मैं- तुम ऐसे नहीं जा सकती बिना बताये

निशा- फिर भी जाना तो पड़ेगा ही. जाउंगी नहीं तो दुबारा कैसे आउंगी.

मैं- जाने से पहले इस चाँद से माथे को जी भर के देखने तो दो मुझे .

निशा-तुम्हारी ये दिलकश बाते भटका नहीं सकती मुझे . रात का तीसरा पहर ख़त्म होने को है इन अंधेरो में खो जाने दो मुझे.

मैं- कुछ दूर चलता हु तुम्हारे साथ

निशा- जरुरत नहीं

मैं- फिर भी

मैंने थोडा पानी पिया और फिर उसका हाथ थाम कर चल दिया. जल्दी ही हम दोनों वनदेव के पत्थर के पास थे.

निशा- अब जाने भी दो

मैं- दिल नहीं कर रहा सरकार तुम्हारी जुदाई मंजूर नहीं मुझे

निशा- मैं नहीं थी तब भी तो जी रहे थे न

मैं- जिन्दगी क्या है तुमने ही तो बताया मुझे

वो आगे बढ़ी की मैंने फिर से उसका हाथ थाम लिया.

निशा- फिर भी जाना होगा मुझे .

मैंने उसका हाथ छोड़ दिया और वो धुंध की चादर में खो सी गयी. मैंने वनदेव के पत्थर को देखा और कहा-बाबा, एक दिन तेरा आशीर्वाद लेंगे हम यही पर. खैर, सुबह मेरी नींद खुली तो देखा की बाहर चूल्हे पर मंगू चाय बना रहा था .

मैं- तू कब आया.

मंगू- थोड़ी देर पहले ही . घर से यहाँ आते आते जम गया सोचा पहले चाय बना लू फिर जगा दूंगा तुमको

मैं- आता हु जरा.

मैं कुछ बाद फ्रेश होकर आया . मंगू ने मुझे चाय का गिलास पकड़ा दिया. आज हद ही जायदा ठण्ड थी .

मैं- मंगू तू कविता से कितना प्रेम करता था .

मंगू जो चाय की चुसकिया ले रहा था उसने घूर कर देखा मुझे

मैं- बता न भोसड़ी के

मंगू-दुनिया कुछ चीजो को कभी नहीं समझ सकती कबीर.

मैं- जानता हूँ पर तेरा भाई सब समझता है

मंगू- वो बहुत अच्छी थी . उम्र में बड़ी होने के बाद भी मैं दिल से चाहने लगा था उसे. अक्सर हम मिलते बाते करते धीरे धीरे हम करीब आ गए.

मैं- क्या उसके पति या ससुर को मालूम था तुम लोगो का

मंगू- नहीं भाई. यदि ऐसा होता तो मैं जिन्दा थोड़ी न रहता दूसरा उसका पति तो शहर में रहता है साल ६ ,महीने में आता था एक दो बार और वैध जी तो कभी इस गाँव में कभी उस गाँव में.

मैं- पर मैं नहीं मानता की तू कविता से सच्चा प्यार करता था .

मंगू- मैंने पहले ही कहा था दुनिया प्यार को नहीं समझती

मैं- अबे चोमू, तू अगर कविता से प्यार करता तो तू उसके कातिल को तलाश जरुर करता . पर तुझे बस उसकी चूत से मतलब था .

मंगू ने चाय का गिलास निचे रख दिया और बोला- मेरे भाई, तू कह सकता है क्योंकि तूने किसी से प्यार नहीं किया तू नहीं जानता की प्रेम क्या होता है . मैंने जब उसकी लाश देखि तो मैं ही जानता हूँ की क्या बीती थी मेरे दिल पर . मैं अभागा तो उसकी लाश को छू भी नहीं पाया.

मंगू का गला बैठ गया. उसकी रुलाई छूट पड़ी.

मंगू- मैं जानता हूँ उसे डाकन ने मारा है . इतनी बेरहमी केवल वो ही कर सकती है

मंगू ने जब डाकन का जिक्र किया तो मेरा दिल धडक उठा . पूरी रात मेरी बाँहों में थी एक डाकन .

मैं- तुझे कैसे मालूम की डाकन ने मारा उसे

मंगू- पूरा गाँव ये ही कहता है . तुझे क्या लगता है मैं इतना बेचैन क्यों हूँ , मुझे तलाश है उसकी जिस दिन वो मेरे सामने आई या तो मैं मर जाऊंगा या फिर उसे मार दूंगा.

मैं- गाँव वालो की बातो कर यकीन मत कर डाकन जैसा कुछ नहीं होता. पर तू चाहे तो कविता के कातिल को तलाश कर सकता है . तूने कभी सोचा की आखिर ऐसी क्या वजह थी की कविता इतनी रात को जंगल में गयी .

मंगू- यही बात तो मुझे उलझन में डाले हुई है भाई की उसे क्या जरूरत थी जंगल में आने की उसके तो खेत भी नहीं है .

मैं- पर मुझे विश्वास है तू इस राज को तलाश कर ही लेगा.

मैंने मंगू से तो कह दिया था पर मैं खुद इस सवाल में उलझा हुआ था अभी तक.

मंगू- मैं तुझे बताना तो भूल ही गया था की राय साहब ने कहा था की कबीर से कहना की दोपहर को घर पहुँच जाये कुछ बेहद जरुरी काम है

मैं- ऐसा क्या जरुरी काम हो गया

मंगू- मुझे क्या मालूम जो कहा तुझे बता दिया. मैं सड़ी सब्जियों को बाहर फेक रहा हु मदद कर दे

मैं- चल फिर.

नंगे पैर कीचड़ से भरे खेत में इस सर्द सुबह में जाना किसी खतरे का सामना करने से कम नहीं था . जैसे जैसे दिन चढ़ता गया और मजदुर भी आते गए. दोपहर को मैं गाँव की तरफ चल दिया. जब घर पहुंचा तो एक गाड़ी हमारे दरवाजे के सामने खड़ी थी जिसे मैंने आज से पहले कभी नहीं देखा था . मैं राय साहब के कमरे में गया तो भैया और चाची पहले से ही मोजूद थे . मैंने देखा की वहां पर एक आदमी और था जिसे मैं नहीं जाता था .

“हम तुम्हारी ही राह देख रहे थे ” राय साहब ने सोने के चश्मे से मुझे घूरते हुए कहा

वो आदमी खड़ा हुआ और बोला- आप सब सोच रहे होंगे की आप ऐसे अचानक यहाँ एक साथ क्यों बुलाये गए. दरअसल राय साहब ने अपनी वसीयत बनवाई है और उनका वकील होने के नाते मेरा फर्ज है की मैं वो आप लोगो को पढ़ कर बताऊ.

मैंने अपने बाप को देखा और सोचा आजकल इसको अजीब अजीब शौक हो रहे है कभी चंपा को रगड़ रहा है कभी वसीयत बना रहा है . पर किसलिए

“वसीयत पर किसलिए पिताजी ” मैं और भैया लगभग एक साथ ही बोल पड़े.

पिताजी- हमें लगता है की कुछ जिम्मेदारिया वक्त से निभा देनी चाहिए.

वकील - राय साहब ने अपनी तमाम संपति का आधा हिस्सा अपने भाई की पत्नी को दिया है . वो ये हिस्सा जैसे चाहे जहाँ चाहे जिस भी मकान, जमीन और जो भी राय साहब की मिलकियत है उसमे से अपनी पसंद अनुसार ले सकती है .

वकील ने गला खंखारा और आगे बोला- बाकि हिस्से में से कुवर अभिमानु और कुंवर कबीर का हिस्सा होगा.

भैया- पिताजी मेरा छोटा भाई मेरे लिए सब कुछ है जो है इसका ही है जो मेरा है इसका है . मेरी सबसे बड़ी सम्पति मेरा भाई है .

चाची- जेठ जी , मेरे लिए सबसे बड़ी सम्पति ये परिवार है मेरे दो बेटे अभिमानु और कबीर. आप ये वसीयत बदलवा दीजिये और सच कहूँ तो हमें भला क्या जरूरत है वसीयत की .

ये कहने के बाद भाभी और भैया दोनों कमरे से बाहर चले गए. रह गए हम तीनो. अचानक से राय साहब को वसीयत बनाने की क्या जरूरत आन पड़ी. मैं इसी सोच में उलझा था .

मैं- वकील साहब , मैं ये वसीयत पढना चाहता हूँ .

वकील- आपको पढने की भला क्या जरूरत कुंवर साहब, राय साहब ने जो किया है सोच समझ कर ही किया है आप बस दस्तखत करे और अपना हिस्सा ले ले.

न जाने क्यों मुझे मन किया की वकील के मुह पर एक मुक्का जड दू.

मैं- फिर भी मैं वसीयत पढना चाहूँगा.

वकील ने पिताजी की तरफ देखा पिताजी ने इशारा किया तो वकील ने मुझे तीन कागज के टुकड़े दिए पर एक कागज का टुकड़ा उसके हाथ में ही रह गया. मैंने तीनो कागज के टुकड़े देखे. जो बंटवारा पिताजी ने किया था वो ही लिखा था . पर मेरी दिलचस्पी उस चौथे टुकड़े में थी जो वकील के हाथ में था .

मैं- मुझे वो कागज भी देखना है

वकील- ये आपकी वसीयत का हिस्सा नहीं है ये मेरे काम का है वो बस साथ में आ गया.

मैं- पिताजी मैं सोचता हूँ की आजतक हमने जो भी शुभ कार्य किया है पुजारी जी से पूछ कर किया है मैं उनसे बात करूँगा यदि वो हाँ कहेंगे तो मैं दस्तखत कर दूंगा.

ये बात मैंनेहवा में फेंकी थी मेरी दिलचस्पी उस चौथे कागज में थी .

पिताजी- तुम जब चाहे दस्तखत करके अपना हिस्सा ले सकते हो . वकील साहब आप जाइये हम कागज वापिस भिजवा देंगे आपको

बाहर चबूतरे पर बैठे मैं सोच रहा था की वकील ने वो चौथा कागज क्यों नहीं दिखाया क्या था उस कागज में ऐसा . ...............

 

Tiger 786

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#57

“नजरे झुका के हमसे छिपा के तुम जा रही हो जाना ” मैंने निशा के हाथ को पकड़ते हुए कहा.

निसा- जाग रहे हो तुम.

मैं- तुम ऐसे नहीं जा सकती बिना बताये

निशा- फिर भी जाना तो पड़ेगा ही. जाउंगी नहीं तो दुबारा कैसे आउंगी.

मैं- जाने से पहले इस चाँद से माथे को जी भर के देखने तो दो मुझे .

निशा-तुम्हारी ये दिलकश बाते भटका नहीं सकती मुझे . रात का तीसरा पहर ख़त्म होने को है इन अंधेरो में खो जाने दो मुझे.

मैं- कुछ दूर चलता हु तुम्हारे साथ

निशा- जरुरत नहीं

मैं- फिर भी

मैंने थोडा पानी पिया और फिर उसका हाथ थाम कर चल दिया. जल्दी ही हम दोनों वनदेव के पत्थर के पास थे.

निशा- अब जाने भी दो

मैं- दिल नहीं कर रहा सरकार तुम्हारी जुदाई मंजूर नहीं मुझे

निशा- मैं नहीं थी तब भी तो जी रहे थे न

मैं- जिन्दगी क्या है तुमने ही तो बताया मुझे

वो आगे बढ़ी की मैंने फिर से उसका हाथ थाम लिया.

निशा- फिर भी जाना होगा मुझे .

मैंने उसका हाथ छोड़ दिया और वो धुंध की चादर में खो सी गयी. मैंने वनदेव के पत्थर को देखा और कहा-बाबा, एक दिन तेरा आशीर्वाद लेंगे हम यही पर. खैर, सुबह मेरी नींद खुली तो देखा की बाहर चूल्हे पर मंगू चाय बना रहा था .

मैं- तू कब आया.

मंगू- थोड़ी देर पहले ही . घर से यहाँ आते आते जम गया सोचा पहले चाय बना लू फिर जगा दूंगा तुमको

मैं- आता हु जरा.

मैं कुछ बाद फ्रेश होकर आया . मंगू ने मुझे चाय का गिलास पकड़ा दिया. आज हद ही जायदा ठण्ड थी .

मैं- मंगू तू कविता से कितना प्रेम करता था .

मंगू जो चाय की चुसकिया ले रहा था उसने घूर कर देखा मुझे

मैं- बता न भोसड़ी के

मंगू-दुनिया कुछ चीजो को कभी नहीं समझ सकती कबीर.

मैं- जानता हूँ पर तेरा भाई सब समझता है

मंगू- वो बहुत अच्छी थी . उम्र में बड़ी होने के बाद भी मैं दिल से चाहने लगा था उसे. अक्सर हम मिलते बाते करते धीरे धीरे हम करीब आ गए.

मैं- क्या उसके पति या ससुर को मालूम था तुम लोगो का

मंगू- नहीं भाई. यदि ऐसा होता तो मैं जिन्दा थोड़ी न रहता दूसरा उसका पति तो शहर में रहता है साल ६ ,महीने में आता था एक दो बार और वैध जी तो कभी इस गाँव में कभी उस गाँव में.

मैं- पर मैं नहीं मानता की तू कविता से सच्चा प्यार करता था .

मंगू- मैंने पहले ही कहा था दुनिया प्यार को नहीं समझती

मैं- अबे चोमू, तू अगर कविता से प्यार करता तो तू उसके कातिल को तलाश जरुर करता . पर तुझे बस उसकी चूत से मतलब था .

मंगू ने चाय का गिलास निचे रख दिया और बोला- मेरे भाई, तू कह सकता है क्योंकि तूने किसी से प्यार नहीं किया तू नहीं जानता की प्रेम क्या होता है . मैंने जब उसकी लाश देखि तो मैं ही जानता हूँ की क्या बीती थी मेरे दिल पर . मैं अभागा तो उसकी लाश को छू भी नहीं पाया.

मंगू का गला बैठ गया. उसकी रुलाई छूट पड़ी.

मंगू- मैं जानता हूँ उसे डाकन ने मारा है . इतनी बेरहमी केवल वो ही कर सकती है

मंगू ने जब डाकन का जिक्र किया तो मेरा दिल धडक उठा . पूरी रात मेरी बाँहों में थी एक डाकन .

मैं- तुझे कैसे मालूम की डाकन ने मारा उसे

मंगू- पूरा गाँव ये ही कहता है . तुझे क्या लगता है मैं इतना बेचैन क्यों हूँ , मुझे तलाश है उसकी जिस दिन वो मेरे सामने आई या तो मैं मर जाऊंगा या फिर उसे मार दूंगा.

मैं- गाँव वालो की बातो कर यकीन मत कर डाकन जैसा कुछ नहीं होता. पर तू चाहे तो कविता के कातिल को तलाश कर सकता है . तूने कभी सोचा की आखिर ऐसी क्या वजह थी की कविता इतनी रात को जंगल में गयी .

मंगू- यही बात तो मुझे उलझन में डाले हुई है भाई की उसे क्या जरूरत थी जंगल में आने की उसके तो खेत भी नहीं है .

मैं- पर मुझे विश्वास है तू इस राज को तलाश कर ही लेगा.

मैंने मंगू से तो कह दिया था पर मैं खुद इस सवाल में उलझा हुआ था अभी तक.

मंगू- मैं तुझे बताना तो भूल ही गया था की राय साहब ने कहा था की कबीर से कहना की दोपहर को घर पहुँच जाये कुछ बेहद जरुरी काम है

मैं- ऐसा क्या जरुरी काम हो गया

मंगू- मुझे क्या मालूम जो कहा तुझे बता दिया. मैं सड़ी सब्जियों को बाहर फेक रहा हु मदद कर दे

मैं- चल फिर.

नंगे पैर कीचड़ से भरे खेत में इस सर्द सुबह में जाना किसी खतरे का सामना करने से कम नहीं था . जैसे जैसे दिन चढ़ता गया और मजदुर भी आते गए. दोपहर को मैं गाँव की तरफ चल दिया. जब घर पहुंचा तो एक गाड़ी हमारे दरवाजे के सामने खड़ी थी जिसे मैंने आज से पहले कभी नहीं देखा था . मैं राय साहब के कमरे में गया तो भैया और चाची पहले से ही मोजूद थे . मैंने देखा की वहां पर एक आदमी और था जिसे मैं नहीं जाता था .

“हम तुम्हारी ही राह देख रहे थे ” राय साहब ने सोने के चश्मे से मुझे घूरते हुए कहा

वो आदमी खड़ा हुआ और बोला- आप सब सोच रहे होंगे की आप ऐसे अचानक यहाँ एक साथ क्यों बुलाये गए. दरअसल राय साहब ने अपनी वसीयत बनवाई है और उनका वकील होने के नाते मेरा फर्ज है की मैं वो आप लोगो को पढ़ कर बताऊ.

मैंने अपने बाप को देखा और सोचा आजकल इसको अजीब अजीब शौक हो रहे है कभी चंपा को रगड़ रहा है कभी वसीयत बना रहा है . पर किसलिए

“वसीयत पर किसलिए पिताजी ” मैं और भैया लगभग एक साथ ही बोल पड़े.

पिताजी- हमें लगता है की कुछ जिम्मेदारिया वक्त से निभा देनी चाहिए.

वकील - राय साहब ने अपनी तमाम संपति का आधा हिस्सा अपने भाई की पत्नी को दिया है . वो ये हिस्सा जैसे चाहे जहाँ चाहे जिस भी मकान, जमीन और जो भी राय साहब की मिलकियत है उसमे से अपनी पसंद अनुसार ले सकती है .

वकील ने गला खंखारा और आगे बोला- बाकि हिस्से में से कुवर अभिमानु और कुंवर कबीर का हिस्सा होगा.

भैया- पिताजी मेरा छोटा भाई मेरे लिए सब कुछ है जो है इसका ही है जो मेरा है इसका है . मेरी सबसे बड़ी सम्पति मेरा भाई है .

चाची- जेठ जी , मेरे लिए सबसे बड़ी सम्पति ये परिवार है मेरे दो बेटे अभिमानु और कबीर. आप ये वसीयत बदलवा दीजिये और सच कहूँ तो हमें भला क्या जरूरत है वसीयत की .

ये कहने के बाद भाभी और भैया दोनों कमरे से बाहर चले गए. रह गए हम तीनो. अचानक से राय साहब को वसीयत बनाने की क्या जरूरत आन पड़ी. मैं इसी सोच में उलझा था .

मैं- वकील साहब , मैं ये वसीयत पढना चाहता हूँ .

वकील- आपको पढने की भला क्या जरूरत कुंवर साहब, राय साहब ने जो किया है सोच समझ कर ही किया है आप बस दस्तखत करे और अपना हिस्सा ले ले.

न जाने क्यों मुझे मन किया की वकील के मुह पर एक मुक्का जड दू.

मैं- फिर भी मैं वसीयत पढना चाहूँगा.

वकील ने पिताजी की तरफ देखा पिताजी ने इशारा किया तो वकील ने मुझे तीन कागज के टुकड़े दिए पर एक कागज का टुकड़ा उसके हाथ में ही रह गया. मैंने तीनो कागज के टुकड़े देखे. जो बंटवारा पिताजी ने किया था वो ही लिखा था . पर मेरी दिलचस्पी उस चौथे टुकड़े में थी जो वकील के हाथ में था .

मैं- मुझे वो कागज भी देखना है

वकील- ये आपकी वसीयत का हिस्सा नहीं है ये मेरे काम का है वो बस साथ में आ गया.

मैं- पिताजी मैं सोचता हूँ की आजतक हमने जो भी शुभ कार्य किया है पुजारी जी से पूछ कर किया है मैं उनसे बात करूँगा यदि वो हाँ कहेंगे तो मैं दस्तखत कर दूंगा.

ये बात मैंनेहवा में फेंकी थी मेरी दिलचस्पी उस चौथे कागज में थी .

पिताजी- तुम जब चाहे दस्तखत करके अपना हिस्सा ले सकते हो . वकील साहब आप जाइये हम कागज वापिस भिजवा देंगे आपको

बाहर चबूतरे पर बैठे मैं सोच रहा था की वकील ने वो चौथा कागज क्यों नहीं दिखाया क्या था उस कागज में ऐसा . ...............
Yeh Rayi Saha ke dimag mai chal kya Raha hai
Superb update
 

Studxyz

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मंगू या तो चालू है या फिर सच्चा है लेकिन वो दिल की बात अपने दोस्त कबीर से कतई नहीं करता

राय साहब की वसीयत भी उलझी सी है चाची को आधा हिस्सा और चौथा कागज़ चम्पा के नाम कुछ किया होगा वो इनसे गाभिन जो हुई है फिर या सूरजभान को भी कुछ हिस्सा छोड़ा होगा लेकिन क्यों ?

निशा डायन जी तो रात भर कबीर के साथ सो कर उसको को पूरी गर्मी दे के चली गयी देखो अब वो कबीर की क़ातिल को ढूंढ़ने में क्या मदद करती है
 
Last edited:

Raj_sharma

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#57

“नजरे झुका के हमसे छिपा के तुम जा रही हो जाना ” मैंने निशा के हाथ को पकड़ते हुए कहा.

निसा- जाग रहे हो तुम.

मैं- तुम ऐसे नहीं जा सकती बिना बताये

निशा- फिर भी जाना तो पड़ेगा ही. जाउंगी नहीं तो दुबारा कैसे आउंगी.

मैं- जाने से पहले इस चाँद से माथे को जी भर के देखने तो दो मुझे .

निशा-तुम्हारी ये दिलकश बाते भटका नहीं सकती मुझे . रात का तीसरा पहर ख़त्म होने को है इन अंधेरो में खो जाने दो मुझे.

मैं- कुछ दूर चलता हु तुम्हारे साथ

निशा- जरुरत नहीं

मैं- फिर भी

मैंने थोडा पानी पिया और फिर उसका हाथ थाम कर चल दिया. जल्दी ही हम दोनों वनदेव के पत्थर के पास थे.

निशा- अब जाने भी दो

मैं- दिल नहीं कर रहा सरकार तुम्हारी जुदाई मंजूर नहीं मुझे

निशा- मैं नहीं थी तब भी तो जी रहे थे न

मैं- जिन्दगी क्या है तुमने ही तो बताया मुझे

वो आगे बढ़ी की मैंने फिर से उसका हाथ थाम लिया.

निशा- फिर भी जाना होगा मुझे .

मैंने उसका हाथ छोड़ दिया और वो धुंध की चादर में खो सी गयी. मैंने वनदेव के पत्थर को देखा और कहा-बाबा, एक दिन तेरा आशीर्वाद लेंगे हम यही पर. खैर, सुबह मेरी नींद खुली तो देखा की बाहर चूल्हे पर मंगू चाय बना रहा था .

मैं- तू कब आया.

मंगू- थोड़ी देर पहले ही . घर से यहाँ आते आते जम गया सोचा पहले चाय बना लू फिर जगा दूंगा तुमको

मैं- आता हु जरा.

मैं कुछ बाद फ्रेश होकर आया . मंगू ने मुझे चाय का गिलास पकड़ा दिया. आज हद ही जायदा ठण्ड थी .

मैं- मंगू तू कविता से कितना प्रेम करता था .

मंगू जो चाय की चुसकिया ले रहा था उसने घूर कर देखा मुझे

मैं- बता न भोसड़ी के

मंगू-दुनिया कुछ चीजो को कभी नहीं समझ सकती कबीर.

मैं- जानता हूँ पर तेरा भाई सब समझता है

मंगू- वो बहुत अच्छी थी . उम्र में बड़ी होने के बाद भी मैं दिल से चाहने लगा था उसे. अक्सर हम मिलते बाते करते धीरे धीरे हम करीब आ गए.

मैं- क्या उसके पति या ससुर को मालूम था तुम लोगो का

मंगू- नहीं भाई. यदि ऐसा होता तो मैं जिन्दा थोड़ी न रहता दूसरा उसका पति तो शहर में रहता है साल ६ ,महीने में आता था एक दो बार और वैध जी तो कभी इस गाँव में कभी उस गाँव में.

मैं- पर मैं नहीं मानता की तू कविता से सच्चा प्यार करता था .

मंगू- मैंने पहले ही कहा था दुनिया प्यार को नहीं समझती

मैं- अबे चोमू, तू अगर कविता से प्यार करता तो तू उसके कातिल को तलाश जरुर करता . पर तुझे बस उसकी चूत से मतलब था .

मंगू ने चाय का गिलास निचे रख दिया और बोला- मेरे भाई, तू कह सकता है क्योंकि तूने किसी से प्यार नहीं किया तू नहीं जानता की प्रेम क्या होता है . मैंने जब उसकी लाश देखि तो मैं ही जानता हूँ की क्या बीती थी मेरे दिल पर . मैं अभागा तो उसकी लाश को छू भी नहीं पाया.

मंगू का गला बैठ गया. उसकी रुलाई छूट पड़ी.

मंगू- मैं जानता हूँ उसे डाकन ने मारा है . इतनी बेरहमी केवल वो ही कर सकती है

मंगू ने जब डाकन का जिक्र किया तो मेरा दिल धडक उठा . पूरी रात मेरी बाँहों में थी एक डाकन .

मैं- तुझे कैसे मालूम की डाकन ने मारा उसे

मंगू- पूरा गाँव ये ही कहता है . तुझे क्या लगता है मैं इतना बेचैन क्यों हूँ , मुझे तलाश है उसकी जिस दिन वो मेरे सामने आई या तो मैं मर जाऊंगा या फिर उसे मार दूंगा.

मैं- गाँव वालो की बातो कर यकीन मत कर डाकन जैसा कुछ नहीं होता. पर तू चाहे तो कविता के कातिल को तलाश कर सकता है . तूने कभी सोचा की आखिर ऐसी क्या वजह थी की कविता इतनी रात को जंगल में गयी .

मंगू- यही बात तो मुझे उलझन में डाले हुई है भाई की उसे क्या जरूरत थी जंगल में आने की उसके तो खेत भी नहीं है .

मैं- पर मुझे विश्वास है तू इस राज को तलाश कर ही लेगा.

मैंने मंगू से तो कह दिया था पर मैं खुद इस सवाल में उलझा हुआ था अभी तक.

मंगू- मैं तुझे बताना तो भूल ही गया था की राय साहब ने कहा था की कबीर से कहना की दोपहर को घर पहुँच जाये कुछ बेहद जरुरी काम है

मैं- ऐसा क्या जरुरी काम हो गया

मंगू- मुझे क्या मालूम जो कहा तुझे बता दिया. मैं सड़ी सब्जियों को बाहर फेक रहा हु मदद कर दे

मैं- चल फिर.

नंगे पैर कीचड़ से भरे खेत में इस सर्द सुबह में जाना किसी खतरे का सामना करने से कम नहीं था . जैसे जैसे दिन चढ़ता गया और मजदुर भी आते गए. दोपहर को मैं गाँव की तरफ चल दिया. जब घर पहुंचा तो एक गाड़ी हमारे दरवाजे के सामने खड़ी थी जिसे मैंने आज से पहले कभी नहीं देखा था . मैं राय साहब के कमरे में गया तो भैया और चाची पहले से ही मोजूद थे . मैंने देखा की वहां पर एक आदमी और था जिसे मैं नहीं जाता था .

“हम तुम्हारी ही राह देख रहे थे ” राय साहब ने सोने के चश्मे से मुझे घूरते हुए कहा

वो आदमी खड़ा हुआ और बोला- आप सब सोच रहे होंगे की आप ऐसे अचानक यहाँ एक साथ क्यों बुलाये गए. दरअसल राय साहब ने अपनी वसीयत बनवाई है और उनका वकील होने के नाते मेरा फर्ज है की मैं वो आप लोगो को पढ़ कर बताऊ.

मैंने अपने बाप को देखा और सोचा आजकल इसको अजीब अजीब शौक हो रहे है कभी चंपा को रगड़ रहा है कभी वसीयत बना रहा है . पर किसलिए

“वसीयत पर किसलिए पिताजी ” मैं और भैया लगभग एक साथ ही बोल पड़े.

पिताजी- हमें लगता है की कुछ जिम्मेदारिया वक्त से निभा देनी चाहिए.

वकील - राय साहब ने अपनी तमाम संपति का आधा हिस्सा अपने भाई की पत्नी को दिया है . वो ये हिस्सा जैसे चाहे जहाँ चाहे जिस भी मकान, जमीन और जो भी राय साहब की मिलकियत है उसमे से अपनी पसंद अनुसार ले सकती है .

वकील ने गला खंखारा और आगे बोला- बाकि हिस्से में से कुवर अभिमानु और कुंवर कबीर का हिस्सा होगा.

भैया- पिताजी मेरा छोटा भाई मेरे लिए सब कुछ है जो है इसका ही है जो मेरा है इसका है . मेरी सबसे बड़ी सम्पति मेरा भाई है .

चाची- जेठ जी , मेरे लिए सबसे बड़ी सम्पति ये परिवार है मेरे दो बेटे अभिमानु और कबीर. आप ये वसीयत बदलवा दीजिये और सच कहूँ तो हमें भला क्या जरूरत है वसीयत की .

ये कहने के बाद भाभी और भैया दोनों कमरे से बाहर चले गए. रह गए हम तीनो. अचानक से राय साहब को वसीयत बनाने की क्या जरूरत आन पड़ी. मैं इसी सोच में उलझा था .

मैं- वकील साहब , मैं ये वसीयत पढना चाहता हूँ .

वकील- आपको पढने की भला क्या जरूरत कुंवर साहब, राय साहब ने जो किया है सोच समझ कर ही किया है आप बस दस्तखत करे और अपना हिस्सा ले ले.

न जाने क्यों मुझे मन किया की वकील के मुह पर एक मुक्का जड दू.

मैं- फिर भी मैं वसीयत पढना चाहूँगा.

वकील ने पिताजी की तरफ देखा पिताजी ने इशारा किया तो वकील ने मुझे तीन कागज के टुकड़े दिए पर एक कागज का टुकड़ा उसके हाथ में ही रह गया. मैंने तीनो कागज के टुकड़े देखे. जो बंटवारा पिताजी ने किया था वो ही लिखा था . पर मेरी दिलचस्पी उस चौथे टुकड़े में थी जो वकील के हाथ में था .

मैं- मुझे वो कागज भी देखना है

वकील- ये आपकी वसीयत का हिस्सा नहीं है ये मेरे काम का है वो बस साथ में आ गया.

मैं- पिताजी मैं सोचता हूँ की आजतक हमने जो भी शुभ कार्य किया है पुजारी जी से पूछ कर किया है मैं उनसे बात करूँगा यदि वो हाँ कहेंगे तो मैं दस्तखत कर दूंगा.

ये बात मैंनेहवा में फेंकी थी मेरी दिलचस्पी उस चौथे कागज में थी .

पिताजी- तुम जब चाहे दस्तखत करके अपना हिस्सा ले सकते हो . वकील साहब आप जाइये हम कागज वापिस भिजवा देंगे आपको

बाहर चबूतरे पर बैठे मैं सोच रहा था की वकील ने वो चौथा कागज क्यों नहीं दिखाया क्या था उस कागज में ऐसा . ...............
बोहोत अच्छै भाई
मुझे लगता हैं वो चोथा पेपर चंपा के लिए था
 
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