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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

TheBlackBlood

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Supreme
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चश्म-ए-नम पर मुस्कुरा कर चल दिए।
आग पानी में लगा कर चल दिए।।

सारी महफ़िल लड़खड़ाती रह गई,
मस्त आँखों से पिला कर चल दिए।।

गर्द-ए-मंज़िल आज तक है बे-क़रार,
इक क़यामत ही उठा कर चल दिए।।

मेरी उम्मीदों की दुनिया हिल गई,
नाज़ से दामन बचा कर चल दिए।।

मुख़्तलिफ़ अंदाज़ से देखा किए,
सब की नज़रें आज़मा कर चल दिए।।

गुलसिताँ में आप आए भी तो क्या,
चंद कलियों को हँसा कर चल दिए।।

वज्द में आ कर हवाएँ रह गईं,
ज़ेर-ए-लब कुछ गुनगुना कर चल दिए।।

वो फ़ज़ा वो चौदहवीं की चाँदनी,
हुस्न की शबनम गिरा कर चल दिए।।

वो तबस्सुम वो अदाएँ वो निगाह,
सब को दीवाना बना कर चल दिए।।

कुछ ख़बर उन की भी है 'माहिर' तुम्हें,
आप तो ग़ज़लें सुना कर चल दिए।।

_________'माहिर' उल क़ादरी
 

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मुक़र्रर वक़्त से पहले समझदारी नहीं आती।
न आनी हो किसी को गर तो फ़नकारी नहीं आती।।

झुकाना सीखना पड़ता है सर लोगों के क़दमों में,
यूँही जम्हूरियत में हाथ सरदारी नहीं आती।।

चलाते हैं अगर तलवार ये तो क्या तअ'ज्जुब है,
करेंगे और क्या जिन को क़लम-कारी नहीं आती।।

सियासी आँधियों से आग लगनी ग़ैर-मुमकिन थी,
कहीं से उड़ के मज़हब की जो चिंगारी नहीं आती।।

क्यूँ बढ़ती जा रही है भूक दौलत की ज़माने में,
तबीबों की समझ इक ये भी बीमारी नहीं आती।।

सभी से हम अदब से और हँस के बात करते हैं,
हमें इस से ज़ियादा बस अदाकारी नहीं आती।।

बुझाना भूल जाएँ कैसे जलती बत्तियाँ घर की,
हमारे घर ऐ हाकिम बिजली सरकारी नहीं आती।।

तिरी बेबाकियाँ 'जानिब' यही तस्दीक़ करती हैं,
हर इक इंसान को दुनिया में हुश्यारी नहीं आती।।

__________महेश 'जानिब'
 

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ये नक़्श ऐसा नहीं है जिसे मिटाऊँ मैं।
मुझे बता कि तुझे कैसे भूल जाऊँ मैं।।

कोई लकीर ही रौशन नहीं हथेली पर,
नजूमियों को भला हाथ क्या दिखाऊँ मैं।।

बुझा बुझा सा नज़र आ रहा है हर कोई,
फ़साना-ए-ग़म-ए-हस्ती किसे सुनाऊँ मैं।।

यक़ीं करो कि मिरी जीत फिर यक़ीनी है,
मगर कहो तो ये बाज़ी भी हार जाऊँ मैं।।

नज़र के सामने मंज़िल के रास्ते हैं बहुत,
ये सोचता हूँ क़दम किस तरफ़ बढ़ाऊँ मैं।।

ये बात सच है कि बुनियाद हूँ इमारत की,
ये और बात किसी को नज़र न आऊँ मैं।।

ग़म-ए-ज़माना से फ़ुर्सत कहाँ 'असर-साहब'
दुआ को हाथ जो अपने लिए उठाऊँ मैं।।

________महफ़ूज़ 'असर'
 

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मैं तिरे शहर में आया तो ठहर जाऊँगा।
साया-ए-अब्र नहीं हूँ कि गुज़र जाऊँगा।।

जज़्बा-ए-दिल का वो आलम है तो इंशा-अल्लाह,
दर्द बन कर तिरे पहलू में उतर जाऊँगा।।

महज़ बेकार न समझें मुझे दुनिया वाले,
ज़िंदगी है तो कोई काम भी कर जाऊँगा।।

दे के आवाज़ तो देखे शब-ए-तारीक मुझे,
रौशनी बन के फ़ज़ाओं में बिखर जाऊँगा।।

छोड़ ऐ रौनक़-ए-बाज़ार मिरा दामन-ए-दिल,
शाम आँगन में उतर आई है घर जाऊँगा।।

मैं मुजाहिद हूँ किसी से नहीं डरता लेकिन,
सामना ख़ुद का जो हो जाए तो डर जाऊँगा।।

रास्ते साफ़ हैं सब फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा से 'माहिर'
कोई दीवार न रोकेगी जिधर जाऊँगा।।

_________'माहिर' अब्दुल हई
 

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सराब देखता हूँ मैं कि आब देखता हूँ मैं।
समझ में जो न आ सके वो ख़्वाब देखता हूँ मैं।।

लहूँ में तैरती है कोई शय तिरी उमीद सी,
उगा हुआ शफ़क़ में आफ़्ताब देखता हूँ मैं।।

मिरी नज़र के सामने है आइना रक्खा हुआ,
तिरी नज़र का हुस्न-ए-इंतिख़ाब देखता हूँ मैं।।

ये किस मक़ाम पर है आज रख़्श-ए-फ़िक्र-ओ-आगही,
कि जिब्रईल को भी हम-रिकाब देखता हूँ मैं।।

ये कोई नज़्र तो नहीं निगाह दिल नवाज़ की,
खिला हुआ जो दिल में इक गुलाब देखता हूँ मैं।।
किसी का दामन-ए-तलब कुशादा इस क़दर नहीं,
तिरी अता को बे-हद-ओ-हिसाब देखता हूँ मैं।।

समझ सकेगा कौन ऐ ख़ुदा तिरी किताब को,
बदल गया है सब का सब निसाब देखता हूँ मैं।।

अभी तो सुन रहा हूँ मैं गढ़ी हुई कहानियाँ,
खुलेगा कब हक़ीक़तों का बाब देखता हूँ मैं।।

दिल-ओ-नज़र की रौशनी है जिस के हर्फ़ हर्फ़ में,
रखी हुई वो ताक़ पर किताब देखता हूँ मैं।।

जो खेलने में तेज़ था नवाब हो गया है वो,
पढ़े लिखे को खस्ता-ओ-ख़राब देखता हूँ मैं।।

वो होशियार आदमी कि जागता है रात दिन,
कभी कभी उसे भी मस्त-ए-ख़्वाब देखता हूँ मैं।।

जो 'माहिर'-ए-अलम-ज़दा के लब पे आ गई हँसी,
तू खा रहा है कोई पेच-ओ-ताब देखता हूँ मैं।।

_________'माहिर' अब्दुल हई
 

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हर इक ने कहा क्यूं तुझे आराम न आया।
सुनते रहे हम लब पे तिरा नाम न आया।।

दीवाने को तकती हैं तिरे शहर की गलियाँ,
निकला तो इधर लौट के बद-नाम न आया।।

मत पूछ कि हम ज़ब्त की किस राह से गुज़रे,
ये देख कि तुझ पर कोई इल्ज़ाम न आया।।

क्या जानिए क्या बीत गई दिन के सफ़र में,
वो मुंतज़िर-ए-शाम सर-ए-शाम न आया।।

ये तिश्नगियाँ कल भी थीं और आज भी 'ज़ैदी'
उस होंट का साया भी मिरे काम न आया।।

________मुस्तफा 'ज़ैदी'
 

VIKRANT

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सराब देखता हूँ मैं कि आब देखता हूँ मैं।
समझ में जो न आ सके वो ख़्वाब देखता हूँ मैं।।

लहूँ में तैरती है कोई शय तिरी उमीद सी,
उगा हुआ शफ़क़ में आफ़्ताब देखता हूँ मैं।।

मिरी नज़र के सामने है आइना रक्खा हुआ,
तिरी नज़र का हुस्न-ए-इंतिख़ाब देखता हूँ मैं।।

ये किस मक़ाम पर है आज रख़्श-ए-फ़िक्र-ओ-आगही,
कि जिब्रईल को भी हम-रिकाब देखता हूँ मैं।।

ये कोई नज़्र तो नहीं निगाह दिल नवाज़ की,
खिला हुआ जो दिल में इक गुलाब देखता हूँ मैं।।
किसी का दामन-ए-तलब कुशादा इस क़दर नहीं,
तिरी अता को बे-हद-ओ-हिसाब देखता हूँ मैं।।

समझ सकेगा कौन ऐ ख़ुदा तिरी किताब को,
बदल गया है सब का सब निसाब देखता हूँ मैं।।

अभी तो सुन रहा हूँ मैं गढ़ी हुई कहानियाँ,
खुलेगा कब हक़ीक़तों का बाब देखता हूँ मैं।।

दिल-ओ-नज़र की रौशनी है जिस के हर्फ़ हर्फ़ में,
रखी हुई वो ताक़ पर किताब देखता हूँ मैं।।

जो खेलने में तेज़ था नवाब हो गया है वो,
पढ़े लिखे को खस्ता-ओ-ख़राब देखता हूँ मैं।।

वो होशियार आदमी कि जागता है रात दिन,
कभी कभी उसे भी मस्त-ए-ख़्वाब देखता हूँ मैं।।

जो 'माहिर'-ए-अलम-ज़दा के लब पे आ गई हँसी,
तू खा रहा है कोई पेच-ओ-ताब देखता हूँ मैं।।

_________'माहिर' अब्दुल हई
Greattt shubham bro. So beautiful poetries. :applause::applause::applause:
 

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ग़ुंचे ग़ुंचे पे गुलिस्ताँ के निखार आ जाए।
जिस तरफ़ से वो गुज़र जाएँ बहार आ जाए।।

हर नफ़स हश्र-ब-दामाँ है जुनून-ए-ग़म में,
किस तरह अहल-ए-मोहब्बत को क़रार आ जाए।।

वो कोई जाम पिला दें तो न जाने क्या हो,
जिन के देखे ही से आँखों में ख़ुमार आ जाए।।

ग़ैर ही से सही पैहम ये कुदूरत क्यूँ हो,
कहीं आईना-ए-दिल पर न ग़ुबार आ जाए।।

कुछ इस अंदाज़ से है हुस्न पशीमान-ए-जफ़ा,
कोई मायूस-ए-वफ़ा देखे तो प्यार आ जाए।।

'नाज़' घर से लिए जाता है सू-ए-दश्त मुझे,
वो जुनूँ जिस से बयाबाँ को भी आर आ जाए।।

__________'नाज़' मुरादाबादी
 
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