सराब देखता हूँ मैं कि आब देखता हूँ मैं।
समझ में जो न आ सके वो ख़्वाब देखता हूँ मैं।।
लहूँ में तैरती है कोई शय तिरी उमीद सी,
उगा हुआ शफ़क़ में आफ़्ताब देखता हूँ मैं।।
मिरी नज़र के सामने है आइना रक्खा हुआ,
तिरी नज़र का हुस्न-ए-इंतिख़ाब देखता हूँ मैं।।
ये किस मक़ाम पर है आज रख़्श-ए-फ़िक्र-ओ-आगही,
कि जिब्रईल को भी हम-रिकाब देखता हूँ मैं।।
ये कोई नज़्र तो नहीं निगाह दिल नवाज़ की,
खिला हुआ जो दिल में इक गुलाब देखता हूँ मैं।।
किसी का दामन-ए-तलब कुशादा इस क़दर नहीं,
तिरी अता को बे-हद-ओ-हिसाब देखता हूँ मैं।।
समझ सकेगा कौन ऐ ख़ुदा तिरी किताब को,
बदल गया है सब का सब निसाब देखता हूँ मैं।।
अभी तो सुन रहा हूँ मैं गढ़ी हुई कहानियाँ,
खुलेगा कब हक़ीक़तों का बाब देखता हूँ मैं।।
दिल-ओ-नज़र की रौशनी है जिस के हर्फ़ हर्फ़ में,
रखी हुई वो ताक़ पर किताब देखता हूँ मैं।।
जो खेलने में तेज़ था नवाब हो गया है वो,
पढ़े लिखे को खस्ता-ओ-ख़राब देखता हूँ मैं।।
वो होशियार आदमी कि जागता है रात दिन,
कभी कभी उसे भी मस्त-ए-ख़्वाब देखता हूँ मैं।।
जो 'माहिर'-ए-अलम-ज़दा के लब पे आ गई हँसी,
तू खा रहा है कोई पेच-ओ-ताब देखता हूँ मैं।।
_________'माहिर' अब्दुल हई