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Serious ज़रा मुलाहिजा फरमाइये,,,,,

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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कितना दुश्वार है जज़्बों की तिजारत करना।
एक ही शख़्स से दो बार मोहब्बत करना।।

जिस को तुम चाहो कोई और न चाहे उस को,
इस को कहते हैं मोहब्बत में सियासत करना।।

सुरमई आँख हसीं जिस्म गुलाबी चेहरा,
इस को कहते हैं किताबत पे किताबत करना।।

दिल की तख़्ती पे भी आयात लिखी रहती हैं,
वक़्त मिल जाए तो उन की भी तिलावत करना।।

देख लेना बड़ी तस्कीन मिलेगी तुम को,
ख़ुद से इक रोज़ कभी अपनी शिकायत करना।।

जिस में कुछ क़ब्रें हों कुछ चेहरे हों कुछ यादें हों,
कितना दुश्वार है उस शहर से हिजरत करना।।

________'लियाक़त' जाफ़री
 
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TheBlackBlood

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तुम्हें अब इस से ज़ियादा सज़ा नहीं दूँगा।
दुआएँ दूँगा मगर बद-दुआ' नहीं दूँगा।।

तिरी तरफ़ से लड़ूँगा मैं तेरी हर इक जंग,
रहूँगा साथ मगर हौसला नहीं दूँगा।।

तिरी ज़बान पे मौक़ूफ़ मेरे हाथ का लम्स,
निवाला दूँगा मगर ज़ाइक़ा नहीं दूँगा।।

मैं पहले बोसे से ना-आश्ना रखूँगा तुम्हें,
फिर इस के बा'द तुम्हें दूसरा नहीं दूँगा।।

फिर एक बार गुज़र जाओ मेरे ऊपर से,
मैं इस के बा'द तुम्हें रास्ता नहीं दूँगा।।

कि तू तलाश करे और मैं तुझ को मिल जाऊँ,
मैं तेरी आँख को इतनी सज़ा नहीं दूँगा।।

भगाए रक्खूँगा अपनी अदालतों में तुम्हें,
तमाम उम्र तुम्हें फ़ैसला नहीं दूँगा।।

मैं उस के साथ हूँ जो उठ के फिर खड़ा हो जाए,
मैं तेरे शहर को अब ज़लज़ला नहीं दूँगा।।

तिरी अना के लिए सिर्फ़ ये सज़ा है बहुत,
तू जा रहा है तो तुझ को सदा नहीं दूँगा।।

कि अब की बार 'लियाक़त' हुआ हुआ सो हुआ,
मैं उस के हाथ में अब आइना नहीं दूँगा।।

_________'लियाक़त' जाफ़री
 

TheBlackBlood

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तुम अपने आप पर एहसान क्यूँ नहीं करते।
किया है इश्क़ तो एलान क्यूँ नहीं करते।।

सजाए फिरते हो महफ़िल न जाने किस किस की,
कभी परिंदों को मेहमान क्यूँ नहीं करते।।

वो देखते ही नहीं जो है मंज़रों से अलग,
कभी निगाह को हैरान क्यूँ नहीं करते।।

पुरानी सम्तों में चलने की सब को आदत है,
नई दिशाओं का वो ध्यान क्यूँ नहीं करते।।

बस इक चराग़ के बुझने से बुझ गए 'दानिश'
तुम आंधियों को परेशान क्यूँ नहीं करते।।

________मदन मोहन 'दानिश'
 

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हम आप क़यामत से गुज़र क्यूँ नहीं जाते।
जीने की शिकायत है तो मर क्यूँ नहीं जाते।।

कतराते हैं बल खाते हैं घबराते हैं क्यूँ लोग,
सर्दी है तो पानी में उतर क्यूँ नहीं जाते।।

आँखों में नमक है तो नज़र क्यूँ नहीं आता,
पलकों पे गुहर हैं तो बिखर क्यूँ नहीं जाते।।

अख़बार में रोज़ाना वही शोर है यानी,
अपने से ये हालात सँवर क्यूँ नहीं जाते।।

ये बात अभी मुझ को भी मालूम नहीं है,
पत्थर इधर आते हैं उधर क्यूँ नहीं जाते।।

तेरी ही तरह अब ये तिरे हिज्र के दिन भी,
जाते नज़र आते हैं मगर क्यूँ नहीं जाते।।

अब याद कभी आए तो आईने से पूछो,
'महबूब-ख़िज़ाँ' शाम को घर क्यूँ नहीं जाते।।

________महबूब ख़िज़ाॅ
 

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मोहब्बत को गले का हार भी करते नहीं बनता।
कुछ ऐसी बात है इंकार भी करते नहीं बनता।।

ख़ुलूस-ए-नाज़ की तौहीन भी देखी नहीं जाती,
शुऊर-ए-हुस्न को बेदार भी करते नहीं बनता।।

तुझे अब क्या कहें ऐ मेहरबाँ अपना ही रोना है,
कि सारी ज़िंदगी ईसार भी करते नहीं बनता।।

सितम देखो कि उस बे-दर्द से अपनी लड़ाई है,
जिसे शर्मिंदा-ए-पैकार भी करते नहीं बनता।।

अदा रंजीदगी परवानगी आँसू-भरी आँखें,
अब इतनी सादगी क्या प्यार भी करते नहीं बनता।।

जवानी मेहरबानी हुस्न भी अच्छी मुसीबत है,
उसे अच्छा उसे बीमार भी करते नहीं बनता।।

भँवर से जी भी घबराता है लेकिन क्या किया जाए,
तवाफ़-ए-मौज-ए-कम-रफ़्तार भी करते नहीं बनता।।

इसी दिल को भरी दुनिया के झगड़े झेलने ठहरे,
यही दिल जिस को दुनिया-दार भी करते नहीं बनता।।

जलाती है दिलों को सर्द-मेहरी भी ज़माने की,
सवाल-ए-गर्मी-ए-बाज़ार भी करते नहीं बनता।।

'ख़िज़ाँ' उन की तवज्जोह ऐसी ना-मुम्किन नहीं लेकिन,
ज़रा सी बात पर इसरार भी करते नहीं बनता।।

_______महबूब 'ख़िज़ाॅ'
 

TheBlackBlood

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जब अपने ग़म का फ़साना उन्हें सुनाते हैं।
ज़माना हँसता है हम पर वो मुस्कुराते हैं।।

मिरी निगाह से जब वो नज़र मिलाते हैं,
दिल-ए-ग़रीब की दुनिया उजाड़ जाते हैं।।

हमारी आँखों ने हर इंक़लाब देखा है,
ज़माना वाले हमें किस लिए डराते हैं।।

ये कैसा जश्न मनाते हैं गुलिस्ताँ वाले,
गुलों को तोड़ते हैं आशियाँ जलाते हैं।।

ज़माने वाले समझते हैं हम को दीवाना,
तुम्हारे हुस्न के जिस वक़्त गीत गाते हैं।।

तिरी निगाह में साक़ी ये कैसा जादू है,
कि बे-पिए ही क़दम डगमगाए जाते हैं।।

जो तेरी बज़्म-ए-तरब में कभी गुज़ारे थे,
वो लम्हे अब भी हमें रोज़ याद आते हैं।।

हमारे अश्कों की ताबिश पे है नज़र शायद,
जभी तो शाम से तारे भी झिलमिलाते हैं।।

वो क्या बनाएँगे बिगड़ा नसीब ऐ 'कशफ़ी'
जो मेरे हाल-ए-परेशाँ पे मुस्कुराते हैं।।

_______'कशफ़ी' लखनवी
 

TheBlackBlood

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ख़्वाबों की तरह गोया बिखर जाएँगे हम भी।
चुप-चाप किसी रोज़ गुज़र जाएँगे हम भी।।

हम जैसे कई लोग चले जाते हैं हर रोज़,
क्या होगा किसी रोज़ जो मर जाएँगे हम भी।।

हम लोग नहीं कुछ भी मगर लौह-ए-ज़माँ पर,
इक नक़्श कोई अपना सा धर जाएँगे हम भी।।

ओढ़े हुए हैं रूह पे हम दाग़ों भरी ख़ाक,
जब उतरेगी ये ख़ाक निखर जाएँगे हम भी।।

इक आइना ऐसा कि जो बातिन भी दिखा दे,
आएगा मुक़ाबिल तो सँवर जाएँगे हम भी।।

रहना है किसे ख़्वाब सी दुनिया में हमेशा,
'काशिफ़' किसी दिन लौट के घर जाएँगे हम भी।।

________'काशिफ़' रफ़ीक़
 

VIKRANT

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ख़्वाबों की तरह गोया बिखर जाएँगे हम भी।
चुप-चाप किसी रोज़ गुज़र जाएँगे हम भी।।

हम जैसे कई लोग चले जाते हैं हर रोज़,
क्या होगा किसी रोज़ जो मर जाएँगे हम भी।।

हम लोग नहीं कुछ भी मगर लौह-ए-ज़माँ पर,
इक नक़्श कोई अपना सा धर जाएँगे हम भी।।

ओढ़े हुए हैं रूह पे हम दाग़ों भरी ख़ाक,
जब उतरेगी ये ख़ाक निखर जाएँगे हम भी।।

इक आइना ऐसा कि जो बातिन भी दिखा दे,
आएगा मुक़ाबिल तो सँवर जाएँगे हम भी।।

रहना है किसे ख़्वाब सी दुनिया में हमेशा,
'काशिफ़' किसी दिन लौट के घर जाएँगे हम भी।।

________'काशिफ़' रफ़ीक़
Greattt shubham bro. So beautiful & heart touching poetry. :applause::applause::applause:
 
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