अशोक जी की पोस्ट और उपमा की बात से ये मेरी कभी पहले की पोस्ट याद आ गयी, ज्यूँ का त्युं पोस्ट कर दे रही हूँ
इसमें दिखाए गए सभी गुण अशोक जी के लेखन में नजर आते हैं,... वह लेखकों के लेखक हैं
काव्यशोभा करान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते। अर्थात वह कारक जो काव्य की शोभा बढ़ाते हैं उसे अलंकार कहते हैं।
अलंकार काव्य और गद्य दोनों ही प्रकार के साहित्य का अभिन्न अंग है , उपमा भी एक अलंकार है , जिसे अगर बहुत सरल शब्दों में कहूं तो जिस जगह दो वस्तुओं में अन्तर रहते हुए भी आकृति एवं गुण की समानता दिखाई जाए उसे उपमा अलंकार कहा जाता है।
उदाहरण
सागर-सा गंभीर हृदय हो,
गिरी- सा ऊँचा हो जिसका मन।
इसमें सागर तथा गिरी उपमान, मन और हृदय उपमेय सा वाचक, गंभीर एवं ऊँचा साधारण धर्म है।
उपमा अलंकार अर्थालंकार है ,
जब किन्ही दो वस्तुओं के गुण, आकृति, स्वभाव आदि में समानता दिखाई जाए या दो भिन्न वस्तुओं कि तुलना कि जाए, तब वहां उपमा अलंकर होता है।
उपमा अलंकार में एक वस्तु या प्राणी कि तुलना दूसरी प्रसिद्ध वस्तु के साथ कि जाती है। जैसे :
हरि पद कोमल कमल।
ऊपर दिए गए उदाहरण में हरि के पैरों कि तुलना कमल के फूल से की गयी है। यहाँ पर हरि के चरणों को कमल के फूल के सामान कोमल बताया गया है। यहाँ उपमान एवं उपमेय में कोई साधारण धर्म होने की वजह से तुलना की जा रही है अतः यह उदाहरण उपमा अलंकार के अंतर्गत आएगा।
उपमा की बात करें तो कालिदास का स्मरण होता ही है
उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्।
दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥
Simile is Kalidas’ forte, Bharavi – density of meaning;
Dandi – simplicity and Magha possesses all three qualitites!”
कालिदास की एक उपमा इतनी पसंद की गयी कि उनका नाम ही "दीपशिखा कालिदास" पड़ गया। वह उपमा थी -
संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा।
नरेंद्र मार्गाट्ट इव प्रपदे विवर्णभावं स स भूमिपालः।।
रघुवंश का प्रसंग है। इंदुमती का स्वयंवर हो रहा था। बहुत से राजा-राजकुमार जमा हुए थे। हाथ में वरमाला लिए वह जिस राजा को छोड़कर आगे बढ़ जाती उसका चेहरा ऐसा धुँधला पड़ जाता जैसे मशाल के आगे बढ़ जाने से अँधेरे में खोये सड़क किनारे के मकान हों।
शकुन्तला के अछूते सौंदर्य को देखकर दुष्यंत ऐसे ही उपमानों की झड़ी लगा देते हैं -
अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररुहै
रनाविद्धं रत्नं मधु नवमनास्वादितरसम्।
अखण्डं पुण्यानां फलमिव च तद्रूपमनघं
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः।।
यह तो अनसूँघा फूल है, अनछुआ पत्ता है, अनबिंधा रत्न है, अनचखा शहद है।
न जाने कितने संचित पुण्यों के फल जैसी इस शकुन्तला को पता नहीं विधाता ने किसके भाग्य में लिखा है।
अनेक प्रसंग है ऐसे ,
और इस पूरे फोरम में अनेक अच्छे लेखक हैं, लेकिन जो टटकी ताज़ी और अनछुई उपमाएं इनकी कहानियों में मिलती हैं अन्यत्र दुर्लभ हैं