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Shayari गुफ्तगू

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मैं जला हुआ राख नहीं, अमर दीप हूं,
जो मिट गया वतन पर मैं वो शहीद हूं,
जिनकी कुर्बानियों से,
हम जीवित हैं,
याद हमेशा वे हमें आएंगे,
न कभी हम भूल पाएंगे.
 
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वहम था कि सारा बाग अपना है,
तूफान के बाद पता चला,
सूखे पत्तो पर भी हक हवाओं का था...
:heart::heart::heart:


गजब........
 
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TheBlackBlood

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दोस्तो, माॅडरेटर्स और एडमिन,

आज शहीद दिवस पर किसी की दो लाइन लिखकर मैं उन शहीदों को नमन करना चाहता हूँ जिन्होंने अपना कल हमारे आज के लिए बलिदान कर दिया।

मेरा मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है, अत: आशा करता हूँ कि इसे सिर्फ और सिर्फ फिरंगियों से भारत प्रायदीप की आजादी को लेकर देखा जाऐ।

धन्यवाद।

झुकेगा सर बस उनकी इबादत में,
हुऐ शहीद जो अपनी हिफाजत में।

jhukega sir bas unki ibaadat main,
hue shaheed jo apni hifaazat main.


images.md.jpg
:adore:
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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मैं जला हुआ राख नहीं, अमर दीप हूं,
जो मिट गया वतन पर मैं वो शहीद हूं,
जिनकी कुर्बानियों से,
हम जीवित हैं,
याद हमेशा वे हमें आएंगे,
न कभी हम भूल पाएंगे.
आओ झुक कर सलाम करे उनको जिनके हिस्से मे ये मुकाम आता है
खुसनसीब है वो खून जो देश के काम आता है!!
 

TheBlackBlood

αlѵíժα
Supreme
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कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी।
सुनते थे वो आयेंगे, सुनते थे सहर होगी।।

कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहार होगा,
किस दिन तेरी शनवाई, ऐ दीदा-ए-तर होगी।।

कब महकेगी फसले-गुल, कब बहकेगा मयखाना,
कब सुबह-ए-सुखन होगी, कब शाम-ए-नज़र होगी।।

वाइज़ है न जाहिद है, नासेह है न क़ातिल है,
अब शहर में यारों की, किस तरह बसर होगी।।

कब तक अभी रह देखें, ऐ कांटे-जनाना,
कब अश्र मुअय्यन है, तुझको तो ख़बर होगी।।
 

Diksha

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ज़फ़ा के ज़िक्र पे तक़रार भी ज़रूरी है
ये "गुफ़्तगू" भी सरे बाज़ार ज़रूरी है

मुफ़ाहमत का तकाज़ा है मसलेहत लेकिन
किसी सवाल पे इनकार भी ज़रूरी है

मेरी दोहाई कहीं खो ना दे वक़ार मेरा
ज़ुबां पे ताला ऐ गुफ़्तार भी ज़रूरी है

लिखे हैं जुर्म सदा मेरे नाम क्यों मुंशिफ़
सज़ा में अबके गुनहगार भी ज़रूरी है

छुपाये राज़ तो रूसवा ना इश्क़ हो जाये
किया है इश्क़ तो इनकार भी ज़रूरी है

शबे फ़िराक़ शबेग़म उदासियों के सितम
कभी कभी तो ये आज़ार भी ज़रूरी है

हम इश्क़ में तो रवादार है मगर
कभी कभी तेरा इशरार भी ज़रूरी है।
: Applause: dusra sherr gajab
 
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Aakash.

ᴇᴍʙʀᴀᴄᴇ ᴛʜᴇ ꜰᴇᴀʀ
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तुझे फुर्सत ही न मिली मुझे पढ़ने की वरना,
हम तेरे शहर में बिकते रहे किताबों की तरह...
?
 
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कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी।
सुनते थे वो आयेंगे, सुनते थे सहर होगी।।

कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहार होगा,
किस दिन तेरी शनवाई, ऐ दीदा-ए-तर होगी।।

कब महकेगी फसले-गुल, कब बहकेगा मयखाना,
कब सुबह-ए-सुखन होगी, कब शाम-ए-नज़र होगी।।

वाइज़ है न जाहिद है, नासेह है न क़ातिल है,
अब शहर में यारों की, किस तरह बसर होगी।।

कब तक अभी रह देखें, ऐ कांटे-जनाना,
कब अश्र मुअय्यन है, तुझको तो ख़बर होगी।।


वो दर्द जो सहे नहीं जाते,
अक्सर कभी कहे भी नहीं जाते।


wo dard jo sahe nahi jaate,
aksar kabhi kahe bhi nahi jaate.
 
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