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Shayari गुफ्तगू

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ना मेरी कोई मंजिल है ना कोई किनारा,
तन्हाई मेरी महफिल और यादें मेरा सहारा.

उससे बिछड़ के कुछ यूं वक्त गुजारा,
कभी जिंदगी को तरसे कभी मौत को पुकारा.
 
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अब जो बिछडे़ हैं, तो बिछड़ने की शिकायत कैसी,
मौत के दरिया में उतरे तो जीने की इजाजत कैसी.

जलाए हैं खुद ने दीप जो राह में तूफानों के,
तो मांगे फिर हवाओं से बचने की रियायत कैसी.

फैसले रहे फासलों के हम दोनों के गर,
तो इन्तकाम कैसा और दरमियां सियासत कैसी.
 
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