भोर हुई, बस्ती में सन्नाटा फैला था। शहर से थोड़ी दूर इंडस्ट्रीयल एरिया था, उसी के पास यह बस्ती बसी थी। बस्ती में रहने वाले लगभग सभी लोग आस-पास के उद्योगों में काम किया करते थे। अभी सूर्योदय हुआ न था लेकिन एक बड़ी फ़ैक्टरी का साइरन बजने लगा। रात में काम करने वाले मज़दूरों के लिए यह छुट्टी का इशारा था और दिन में ड्यूटी बजाने वालों के लिए उठ कर काम पर जाने का अलार्म। कुछ ही देर में बस्ती के घरों और गलियों में चहल-पहल होने लगी।
लेकिन बस्ती की तंग कच्ची गलियों में एक मकान, जो दूसरे मकानों से थोड़ा बेहतर और पक्का था, अभी भी सुनसान पड़ा था। यह सुपरवाइज़र साहब का मकान था। सुपरवाइज़र हरनाम सिंह लगभग 20 वर्षों से बस्ती में रह रहे थे। सुनी-सुनाई बात थी कि पहले वे बड़े शहर में रहा करते थे।
बस्ती के लोगों के लिए तो वे एक फ़रिश्ते समान थे। चाहे कुछ लिख-पढ़ की बात हो या रुपए पैसे की, वे बस्तीवालों की हर सम्भव मदद किया करते थे। बस्ती के घरेलू झगड़े, मारपीट के इल्ज़ामात और बाक़ी सभी तरह के मसले कोर्ट-कचहरी से पहले सुपरवाइज़र हरनाम सिंह के यहाँ पेश हुआ करते थे, और अक्सर सुलझा भी वहीं लिए जाते थे।
वे सच में किसी फ़ैक्टरी के सुपरवाइज़र नहीं थे, बस एक ओहदा था जो किसी ने उनके नाम के आगे जोड़ दिया था, जो जुड़ा ही रह गया। लेकिन अब वे बूढ़े हो चले थे और उनकी ख़ैर-तबियत भी पहले सी ना रही थी। सो बस्ती के लोग सुबह होते ही पहले उनकी सुध-बुध लेते, फिर अपने काम पर जाते। हरनाम सिंह भी रोज़ सुबह एक काग़ज़ पेन ले, अपने टटपूँजिए बिसातियों की ख़ैर ख़बर लिया करते और अपनी दिनचर्या की शुरुआत किया करते थे।
उस रोज़ भी बस्ती के एक कारिंदे को उन्हें बुलाने के लिए दौड़ाया गया।
उस समय सुपरवाइज़र हरनाम सिंह अपने छोटे से कमरे में एक पुरानी चरमराती मेज़-कुर्सी पर बैठे थे। मेज़ पर उस रोज़ का कामकाज लिखने के लिए एक ख़ाली काग़ज़ रखा था। वे जानते थे कि कोई उन्हें बुलाने आता ही होगा, लेकिन वह ख़त जो उनकी मेज़ की दराज में रखा था, उन्हें बांधे हुए था। आख़िर उन्होंने दराज से ख़त निकाला और कांपती उम्रदराज़ उँगलियों से उसे खोल कर पढ़ने लगे।
बाबा,
"फटेला, फटेला, फटेला!" ये वो पहले शब्द थे जो मैंने उसके मुँह से सुने।
उस रोज़ इंटर-स्कूल एथलेटिक्स का पहला दिन था, स्कूल के मैदान में एक तरफ़ लकड़ी की बल्लियाँ लगा कर दर्शकों के लिए स्टैंड बनाया गया था। हमारे स्कूल से मुझे और एक और लड़के को 1500 मीटर की दौड़ के लिए चुना गया। मैदान छोटा होने की वजह से हमें गोलाकार ट्रैक के पाँच चक्कर पूरे करने थे। मैं तीसरा चक्कर पूरा कर स्टैंड के पास से गुजरा था जब मैंने उसकी आवाज़ सुनी। मैं उसे पहचान न सका, शायद वह किसी दूसरे स्कूल से आई थी।
मगर उसके बग़ल में खड़े माधव को मैं पहचान गया। स्कूल के शुरुआती सालों से ही उसे मेरी पहचान से ख़ास लगाव रहा था। 'फटेला' यह नाम उसी की देन थी, जब मैं पहली कक्षा में फटे जूते और अपनी देह से कुछ बड़ी स्कूल ड्रेस पहने दाखिल हुआ था। लेकिन शायद आपकी हिदायतों का असर रहा होगा कि मैं उसकी मलिन छींटाकशी को अब नज़रंदाज़ करना सीख गया था। मैं समझ गया कि शायद उसी ने उस लड़की को वो नारा लगाने के लिए उकसाया था।
उस वक्त इंटर-स्कूल एथलेटिक्स प्रतियोगिता जीतना मेरा सपना हुआ करता था और मैं नहीं चाहता था कि मेरा ध्यान भटक जाए। उन दोनों को मन से परे कर मैंने चौथा चक्कर शुरू किया। मेरे और दूसरे नम्बर के लड़के के बीच अब एक लम्बा फ़ासला था। लेकिन जब मैं एक बार फिर से दौड़ता हुआ दर्शकों के लिए बने स्टैंड के सामने से गुजरा तो उनकी तरफ़ देखे बिना न रह सका। वो अपने कुछ दोस्तों के बीच खड़ी थी, इस बार उसके ब्लेज़र से मैं जान गया कि वह हमारे स्कूल से नहीं थी।
उसकी दुबली-पतली सी काया देख मैंने सोचा कि उसके सपाट सीने की ओर इशारा कर कुछ ऐसा कहूँ जो साथ खड़े माधव को लड़ने के लिए उकसा दे। तब शायद आपके पूछने पर मैं यह कह सकता था कि हाथ पहले माधव ने उठाया था। फिर भी आप शायद जान जाते, क्योंकि माधव से लड़ाई करने के लिए मुझे किसी बहाने की ज़रूरत न हुआ करती थी।
दौड़ का पाँचवां और आख़िरी चक्कर शुरू हुआ। उस वक्त मैं अपने आप को चेकोस्लोवाकिया के महान धावक जेटोपेक से कम न समझ रहा था। दर्शकों, अध्यापकों और मेरे मित्रों की वाहवाही भरे नारे पहले ही मेरे मन में गूंजने लगे थे तभी मैं एक बार फिर दौड़ता हुआ उनके सामने आ गया।
"फटेला, फटेला, फटेला!" इस बार उनकी आवाज़ और तेज थी। माधव और वो लड़की एक स्वर चिल्ला रहे थे, और पास खड़े उनके दोस्त हंसने लगे थे। बस कुछ ही कदम और इंटर-स्कूल प्रतियोगिता जीतने का मेरा सपना पूरा हो जाता। स्कोर बोर्ड पर लिखा समय बता रहा था कि मैं जीत ही नहीं रहा था बल्कि स्कूल रिकार्ड भी तोड़ने वाला था।
हमारे पी.टी. मास्साहब की आवाज़ मेरे कानों में गूंज रही थी, "अमन तुम कर सकते हो बेटा! रुकना नहीं।"
जेटोपेक कहता था कि एक धावक को अपनी एकाग्रता कभी नहीं खोनी चाहिए वरना वह कभी सफल नहीं हो सकेगा। लेकिन माधव और उस से भी ज़्यादा उसके संग उस लड़की का होना मुझे खलने लगा था, माधव ने मुँह बना कर एक भद्दा सा इशारा किया। मैं अपना आपा खो बैठा। मैं ट्रैक से हट उनकी तरफ़ दौड़ा। दर्शकों की ओर से एक ताज्जुब भरा स्वर उभरा मगर मेरे कानों में जैसे सीटियाँ बज रही थी। एक छलांग, और मैं बल्लियों के उस पार उनके सामने खड़ा था।
माधव ने एक हाथ हवा में उठा अपना चेहरा बचाना चाहा था मगर मेरा वार रोक ना सका। उस वार में मैंने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी। वह लड़की अब माधव के पास ज़मीन पर घुटने टिकाए बैठी थी। उसने मुझे ऐसी नफ़रत से देखा जिसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। जब मैंने देखा कि माधव अब उठ कर मेरा सामना नहीं कर सकेगा तो मैं बल्लियाँ फाँद कर वापस ट्रैक पर आ गया। सभी धावक तब तक दौड़ पूरी कर चुके थे। मैं अपने फटे जूतों पर नज़र गड़ाए, धीरे-धीरे चलता हुआ अपनी हार की तरफ़ बढ़ने लगा।
"फिर हार गया, फटेले!" पीछे से उस दुबली सी लड़की की तीव्र आवाज़ आई थी।
कितनी ही बार आपने मुझे समझाया होगा कि हिंसा से धन-बल की तरक़्क़ी तो हो सकती है मगर इंसान और इंसानियत की तरक़्क़ी नहीं हो सकती। आप सही थे, मगर वो उम्र ही ऐसी थी कि आपकी बातें मुझे बेमानी लगती थी। जब मुझे पता लगा कि आप अनामिका, जिसका नाम मैं जान चुका था, के पिता की फ़ैक्टरी में काम करते हैं, मेरा खून खौल उठा था। आपको याद होगा कि मैंने आपसे वो नौकरी छोड़ देने को कहा था। आपने तब भी यही कहा कि राव साहब अच्छे आदमी हैं और अपने लोगों का ख़याल रखते हैं। मगर मैं कभी ना समझ सका। शायद एक बच्चा, जिसकी माँ ने इलाज के अभाव से दम तोड़ दिया हो, एक धनी मालिक की सहृदयता कभी नहीं समझ सकता।
ख़ैर, आपकी सहनशीलता का मुक़ाबला मैं न तब कर सकता था, न आज।
सुपरवाइज़र साहब ने ख़त को मेज़ पर रखा और अपनी बूढ़ी आँखों को अंगूठे के पोरों से मसला। सधे हाथ से उकेरे वो अक्षर उन्होंने कभी अपने अमन को सिखाए थे। वह शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में होनहार रहा था, उसके शिक्षकों से कभी कोई शिकायत आई हो ऐसा याद ना पड़ता था। धीरे-धीरे उनके मन में भी एक आशा जगने लगी थी कि शायद एक दिन अमन उन्हें उस गरीब बस्ती से निकाल ले जाएगा जहां उनका बचपन और जवानी गुजर गए थे।
ख़त का पन्ना पलट हरनाम सिंह पढ़ने लगे।
क्या आपको याद है मैंने आपसे पूछा था कि क्या उस लड़की को एहसास नहीं कि कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं होता, हमारा काम ही हमारी पहचान होता है। मैं आपका जवाब कभी नहीं भूल सका, जब आपने कहा था कि वो तुमसे लाख गुना बेहतर है अगर उसके दोस्त को मारना तुम अपनी बेहतरी समझते हो।
बहुत साल बाद मुझे आपकी बात का मतलब समझ आया, लेकिन उस रात मुझे आप सिर्फ़ एक कायर मालूम हुए थे।
कुछ समय बीता, मैंने अपना समय पढ़ाई और धावकी के बीच बाँट लिया था। जब मैं पढ़ नहीं रहा होता था तो ट्रैक पर अपनी ऊर्जा व्यय कर रहा होता था और जब ट्रैक पर नहीं होता था तो पढ़ रहा होता था। अब मेरा एक ही लक्ष्य था, यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति प्राप्त करना, ताकि मैं इस ज़िल्लत की ज़िंदगी से निकल सकूँ। मगर मैं नहीं जानता था कि अनामिका से मेरा सामना फिर होगा।
उस दिन मैं कुछ दोस्तों के कहने पर उनके साथ शहर में लगा सर्कस देखने गया था। आप नाराज़ होंगे यह सोचकर आपको बताया नहीं और लाइब्रेरी जाने का बहाना कर मैं घर से निकला था।
वह भी वहाँ आई हुई थी, माधव और उसके दोस्तों के साथ। उसके लम्बे बाल उसके कंधों पर झरते हुए उसके सीने पर आ रहे थे। मन ही मन एक बार फिर मैं उज्जड़पन से हंसा था, उस लड़की का सीना जैसे था ही नहीं। उसने एक स्कर्ट पहना था जो उसके घुटनों तक आ रहा था और पैरों में कढ़ाईदार चप्पलें। मुझे मानना पड़ा कि नाज़ुक और गुलाबी से उसके पैर वास्तव में बहुत सुंदर थे।
माधव के गाल पर अभी भी एक काला निशान था, जिसे देख मेरे दिल को थोड़ी तसल्ली मिली।
पास ही एक बड़ा पानी का बंद बनाया हुआ था जिसमें एक महावत अपने हाथी से करतब करवा रहा था। हम उसे देखने के लिए मुड़े। शायद मैं पानी के ज़्यादा क़रीब खड़ा था, जब पीछे से मुझे एक धक्का लगा और मैं पानी में जा गिरा। आस-पास सब हंसने लगे थे। पानी से तरबतर मैं उठा, लेकिन अपने पीछे किसी को ना पाया। इस में समझने की कुछ बात ही नहीं थी कि माधव ने ही मुझे गिराया था और अब वहाँ से भाग खड़ा हुआ था।
पानी में धकेले जाने से ज़्यादा मुझे दुःख इस बात का था कि मैं अपना सबसे अच्छा ब्लेज़र पहन कर आया था। वही जिसे मैं अक्सर आपके साथ शाम को बाज़ार जाते समय पहना करता था।
उस दिन मैं छिपता-छिपाता घर पहुँचा ताकि कहीं कोई देख न ले और आपसे न कह दे। घर आते ही मैंने ब्लेज़र को छिपा दिया और तब तक छिपाए रखा जब तक तीन हफ़्ते का जेब खर्च बचा कर उसे साफ़ नहीं करवा लिया। मुझे याद है आपकी अर्थपूर्ण निगाह जब उन दिनों मैं सिर्फ़ पैंट-शर्ट पहन आपके साथ बाज़ार ज़ाया करता था।
हरनाम सिंह को याद था वह दिन, जब उनके पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति, जो अपने परिवार के साथ सर्कस में मौजूद थे, ने आकर वह वाक़या उन्हें सुनाया था। इसलिए उन्होंने अमन से उसके ब्लेज़र, जिसे वह बड़े नाज़ से पहना करता था, के बारे में कोई सवाल नहीं किया था।
अगली बार मैंने अनामिका को स्कूल के फ़ेयरवेल फ़ेस्टिवल में देखा। उस रोज़ मैं काफ़ी खुश था, मैंने एक नया, क़रीने से प्रेस किया हुआ सूट पहना था, और मुझे लग रहा था कि मैं काफ़ी स्मार्ट दिख रहा हूँ। लेकिन फिर मैंने माधव को देखा, जो एक उम्दा सूट पहने अपने पिता की कार से उतर रहा था। अनामिका उसके साथ खड़ी थी। मैंने मन में सोचा था कि क्या मैं भी कभी एक कार ले सकूँगा। मैंने निश्चय किया कि छात्रवृत्ति पाने के लिए अब से ट्रैक पर जाना छोड़ दूँगा।
हम सब स्कूल के हॉल में एकत्रित हो गए थे। लेकिन मेरी नज़र थी जैसे अनामिका से जुदा ही नहीं होना चाहती थी। उसने एक लम्बी सी लाल पोशाक पहनी थी और एक सुनहरी बेल्ट उसकी पतली सी कमर को घेरे थी। जाने क्यूँ मैं रुक ना सका और उनके पास गया, "क्या तुम मेरे साथ एक डान्स करना चाहोगी?" मेरे मुँह से निकला।
बस एक पल के लिए मैंने अनामिका की आँखों में देखा। उस पल में अगर उसने मुझसे कहा होता कि दोबारा पूछने से पहले जाओ और एक हज़ार क़त्ल कर के आओ, तो मैं वो भी करने के लिए तैयार था। लेकिन उसने कुछ न कहा।
"अपनी औक़ात वाली कोई ढूँढ ले फटेले।" माधव ने कहा था और हंस पड़ा। उसके दोस्त भी खिसियाते हुए हंसने लगे।
अनामिका के चेहरे पर भी एक अजीब सा भाव आया था और चला गया।
मैं शर्मसार वहाँ से उल्टे पैर घर लौट आया।
मुझे नफ़रत थी उन लोगों से, उनके दोस्तों से, उनके पैसों से, और उस लड़की की ख़ूबसूरती से, जिसे मैं कभी पा नहीं सकता था।
फिर किसी ने मुझे बताया कि माधव आगे की पढ़ाई के लिए विलायत जा रहा है। मैंने धावकी छोड़ दी, दोस्तों से जो थोड़ा बहुत मिलना-जुलना होता था वह भी छोड़ दिया। मैं पढ़ाई में दिन-दोगुनी रात-चौगुनी मेहनत करने लगा। उस दौरान मैंने अनामिका को एक-दो बार से ज़्यादा नहीं देखा, लेकिन सोचा अक्सर था।
आख़िरकार मेरे जीवन में कुछ अच्छा हुआ। मुझे यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मिल गई। मुझे याद है आपका चेहरा, जिसपर सदैव एक निर्मल सा भाव होता है, लेकिन उस दिन आप भी अपना गर्व छिपा ना सके थे।
उस रोज़ मेरा नाम स्कूल की असेंबली में पुकारा गया। तब मैंने मन ही मन सोचा था कि क्या हमारे स्कूल की किसी सहेली ने उसे भी यह बात बताई होगी?