• If you are trying to reset your account password then don't forget to check spam folder in your mailbox. Also Mark it as "not spam" or you won't be able to click on the link.

Romance अनामिका ~ एक प्रेम कहानी ✔︎

क्या आपको लगता है इस कहानी का अंत अलग होना चाहिए था?

  • हाँ

    Votes: 7 77.8%
  • जो अंत लिखा गया वही उपयुक्त है

    Votes: 2 22.2%

  • Total voters
    9

Lews Therin Telamon

It was a pleasure to burn
Supreme
536
494
64
भोर हुई, बस्ती में सन्नाटा फैला था। शहर से थोड़ी दूर इंडस्ट्रीयल एरिया था, उसी के पास यह बस्ती बसी थी। बस्ती में रहने वाले लगभग सभी लोग आस-पास के उद्योगों में काम किया करते थे। अभी सूर्योदय हुआ न था लेकिन एक बड़ी फ़ैक्टरी का साइरन बजने लगा। रात में काम करने वाले मज़दूरों के लिए यह छुट्टी का इशारा था और दिन में ड्यूटी बजाने वालों के लिए उठ कर काम पर जाने का अलार्म। कुछ ही देर में बस्ती के घरों और गलियों में चहल-पहल होने लगी।

लेकिन बस्ती की तंग कच्ची गलियों में एक मकान, जो दूसरे मकानों से थोड़ा बेहतर और पक्का था, अभी भी सुनसान पड़ा था। यह सुपरवाइज़र साहब का मकान था। सुपरवाइज़र हरनाम सिंह लगभग 20 वर्षों से बस्ती में रह रहे थे। सुनी-सुनाई बात थी कि पहले वे बड़े शहर में रहा करते थे।

बस्ती के लोगों के लिए तो वे एक फ़रिश्ते समान थे। चाहे कुछ लिख-पढ़ की बात हो या रुपए पैसे की, वे बस्तीवालों की हर सम्भव मदद किया करते थे। बस्ती के घरेलू झगड़े, मारपीट के इल्ज़ामात और बाक़ी सभी तरह के मसले कोर्ट-कचहरी से पहले सुपरवाइज़र हरनाम सिंह के यहाँ पेश हुआ करते थे, और अक्सर सुलझा भी वहीं लिए जाते थे।

वे सच में किसी फ़ैक्टरी के सुपरवाइज़र नहीं थे, बस एक ओहदा था जो किसी ने उनके नाम के आगे जोड़ दिया था, जो जुड़ा ही रह गया। लेकिन अब वे बूढ़े हो चले थे और उनकी ख़ैर-तबियत भी पहले सी ना रही थी। सो बस्ती के लोग सुबह होते ही पहले उनकी सुध-बुध लेते, फिर अपने काम पर जाते। हरनाम सिंह भी रोज़ सुबह एक काग़ज़ पेन ले, अपने टटपूँजिए बिसातियों की ख़ैर ख़बर लिया करते और अपनी दिनचर्या की शुरुआत किया करते थे।

उस रोज़ भी बस्ती के एक कारिंदे को उन्हें बुलाने के लिए दौड़ाया गया।

उस समय सुपरवाइज़र हरनाम सिंह अपने छोटे से कमरे में एक पुरानी चरमराती मेज़-कुर्सी पर बैठे थे। मेज़ पर उस रोज़ का कामकाज लिखने के लिए एक ख़ाली काग़ज़ रखा था। वे जानते थे कि कोई उन्हें बुलाने आता ही होगा, लेकिन वह ख़त जो उनकी मेज़ की दराज में रखा था, उन्हें बांधे हुए था। आख़िर उन्होंने दराज से ख़त निकाला और कांपती उम्रदराज़ उँगलियों से उसे खोल कर पढ़ने लगे।


बाबा,
"फटेला, फटेला, फटेला!" ये वो पहले शब्द थे जो मैंने उसके मुँह से सुने।
उस रोज़ इंटर-स्कूल एथलेटिक्स का पहला दिन था, स्कूल के मैदान में एक तरफ़ लकड़ी की बल्लियाँ लगा कर दर्शकों के लिए स्टैंड बनाया गया था। हमारे स्कूल से मुझे और एक और लड़के को 1500 मीटर की दौड़ के लिए चुना गया। मैदान छोटा होने की वजह से हमें गोलाकार ट्रैक के पाँच चक्कर पूरे करने थे। मैं तीसरा चक्कर पूरा कर स्टैंड के पास से गुजरा था जब मैंने उसकी आवाज़ सुनी। मैं उसे पहचान न सका, शायद वह किसी दूसरे स्कूल से आई थी।
मगर उसके बग़ल में खड़े माधव को मैं पहचान गया। स्कूल के शुरुआती सालों से ही उसे मेरी पहचान से ख़ास लगाव रहा था। 'फटेला' यह नाम उसी की देन थी, जब मैं पहली कक्षा में फटे जूते और अपनी देह से कुछ बड़ी स्कूल ड्रेस पहने दाखिल हुआ था। लेकिन शायद आपकी हिदायतों का असर रहा होगा कि मैं उसकी मलिन छींटाकशी को अब नज़रंदाज़ करना सीख गया था। मैं समझ गया कि शायद उसी ने उस लड़की को वो नारा लगाने के लिए उकसाया था।
उस वक्त इंटर-स्कूल एथलेटिक्स प्रतियोगिता जीतना मेरा सपना हुआ करता था और मैं नहीं चाहता था कि मेरा ध्यान भटक जाए। उन दोनों को मन से परे कर मैंने चौथा चक्कर शुरू किया। मेरे और दूसरे नम्बर के लड़के के बीच अब एक लम्बा फ़ासला था। लेकिन जब मैं एक बार फिर से दौड़ता हुआ दर्शकों के लिए बने स्टैंड के सामने से गुजरा तो उनकी तरफ़ देखे बिना न रह सका। वो अपने कुछ दोस्तों के बीच खड़ी थी, इस बार उसके ब्लेज़र से मैं जान गया कि वह हमारे स्कूल से नहीं थी।
उसकी दुबली-पतली सी काया देख मैंने सोचा कि उसके सपाट सीने की ओर इशारा कर कुछ ऐसा कहूँ जो साथ खड़े माधव को लड़ने के लिए उकसा दे। तब शायद आपके पूछने पर मैं यह कह सकता था कि हाथ पहले माधव ने उठाया था। फिर भी आप शायद जान जाते, क्योंकि माधव से लड़ाई करने के लिए मुझे किसी बहाने की ज़रूरत न हुआ करती थी।
दौड़ का पाँचवां और आख़िरी चक्कर शुरू हुआ। उस वक्त मैं अपने आप को चेकोस्लोवाकिया के महान धावक जेटोपेक से कम न समझ रहा था। दर्शकों, अध्यापकों और मेरे मित्रों की वाहवाही भरे नारे पहले ही मेरे मन में गूंजने लगे थे तभी मैं एक बार फिर दौड़ता हुआ उनके सामने आ गया।
"फटेला, फटेला, फटेला!" इस बार उनकी आवाज़ और तेज थी। माधव और वो लड़की एक स्वर चिल्ला रहे थे, और पास खड़े उनके दोस्त हंसने लगे थे। बस कुछ ही कदम और इंटर-स्कूल प्रतियोगिता जीतने का मेरा सपना पूरा हो जाता। स्कोर बोर्ड पर लिखा समय बता रहा था कि मैं जीत ही नहीं रहा था बल्कि स्कूल रिकार्ड भी तोड़ने वाला था।
हमारे पी.टी. मास्साहब की आवाज़ मेरे कानों में गूंज रही थी, "अमन तुम कर सकते हो बेटा! रुकना नहीं।"
जेटोपेक कहता था कि एक धावक को अपनी एकाग्रता कभी नहीं खोनी चाहिए वरना वह कभी सफल नहीं हो सकेगा। लेकिन माधव और उस से भी ज़्यादा उसके संग उस लड़की का होना मुझे खलने लगा था, माधव ने मुँह बना कर एक भद्दा सा इशारा किया। मैं अपना आपा खो बैठा। मैं ट्रैक से हट उनकी तरफ़ दौड़ा। दर्शकों की ओर से एक ताज्जुब भरा स्वर उभरा मगर मेरे कानों में जैसे सीटियाँ बज रही थी। एक छलांग, और मैं बल्लियों के उस पार उनके सामने खड़ा था।
माधव ने एक हाथ हवा में उठा अपना चेहरा बचाना चाहा था मगर मेरा वार रोक ना सका। उस वार में मैंने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी। वह लड़की अब माधव के पास ज़मीन पर घुटने टिकाए बैठी थी। उसने मुझे ऐसी नफ़रत से देखा जिसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। जब मैंने देखा कि माधव अब उठ कर मेरा सामना नहीं कर सकेगा तो मैं बल्लियाँ फाँद कर वापस ट्रैक पर आ गया। सभी धावक तब तक दौड़ पूरी कर चुके थे। मैं अपने फटे जूतों पर नज़र गड़ाए, धीरे-धीरे चलता हुआ अपनी हार की तरफ़ बढ़ने लगा।
"फिर हार गया, फटेले!" पीछे से उस दुबली सी लड़की की तीव्र आवाज़ आई थी।
कितनी ही बार आपने मुझे समझाया होगा कि हिंसा से धन-बल की तरक़्क़ी तो हो सकती है मगर इंसान और इंसानियत की तरक़्क़ी नहीं हो सकती। आप सही थे, मगर वो उम्र ही ऐसी थी कि आपकी बातें मुझे बेमानी लगती थी। जब मुझे पता लगा कि आप अनामिका, जिसका नाम मैं जान चुका था, के पिता की फ़ैक्टरी में काम करते हैं, मेरा खून खौल उठा था। आपको याद होगा कि मैंने आपसे वो नौकरी छोड़ देने को कहा था। आपने तब भी यही कहा कि राव साहब अच्छे आदमी हैं और अपने लोगों का ख़याल रखते हैं। मगर मैं कभी ना समझ सका। शायद एक बच्चा, जिसकी माँ ने इलाज के अभाव से दम तोड़ दिया हो, एक धनी मालिक की सहृदयता कभी नहीं समझ सकता।
ख़ैर, आपकी सहनशीलता का मुक़ाबला मैं न तब कर सकता था, न आज।

सुपरवाइज़र साहब ने ख़त को मेज़ पर रखा और अपनी बूढ़ी आँखों को अंगूठे के पोरों से मसला। सधे हाथ से उकेरे वो अक्षर उन्होंने कभी अपने अमन को सिखाए थे। वह शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में होनहार रहा था, उसके शिक्षकों से कभी कोई शिकायत आई हो ऐसा याद ना पड़ता था। धीरे-धीरे उनके मन में भी एक आशा जगने लगी थी कि शायद एक दिन अमन उन्हें उस गरीब बस्ती से निकाल ले जाएगा जहां उनका बचपन और जवानी गुजर गए थे।

ख़त का पन्ना पलट हरनाम सिंह पढ़ने लगे।


क्या आपको याद है मैंने आपसे पूछा था कि क्या उस लड़की को एहसास नहीं कि कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं होता, हमारा काम ही हमारी पहचान होता है। मैं आपका जवाब कभी नहीं भूल सका, जब आपने कहा था कि वो तुमसे लाख गुना बेहतर है अगर उसके दोस्त को मारना तुम अपनी बेहतरी समझते हो।
बहुत साल बाद मुझे आपकी बात का मतलब समझ आया, लेकिन उस रात मुझे आप सिर्फ़ एक कायर मालूम हुए थे।
कुछ समय बीता, मैंने अपना समय पढ़ाई और धावकी के बीच बाँट लिया था। जब मैं पढ़ नहीं रहा होता था तो ट्रैक पर अपनी ऊर्जा व्यय कर रहा होता था और जब ट्रैक पर नहीं होता था तो पढ़ रहा होता था। अब मेरा एक ही लक्ष्य था, यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति प्राप्त करना, ताकि मैं इस ज़िल्लत की ज़िंदगी से निकल सकूँ। मगर मैं नहीं जानता था कि अनामिका से मेरा सामना फिर होगा।
उस दिन मैं कुछ दोस्तों के कहने पर उनके साथ शहर में लगा सर्कस देखने गया था। आप नाराज़ होंगे यह सोचकर आपको बताया नहीं और लाइब्रेरी जाने का बहाना कर मैं घर से निकला था।
वह भी वहाँ आई हुई थी, माधव और उसके दोस्तों के साथ। उसके लम्बे बाल उसके कंधों पर झरते हुए उसके सीने पर आ रहे थे। मन ही मन एक बार फिर मैं उज्जड़पन से हंसा था, उस लड़की का सीना जैसे था ही नहीं। उसने एक स्कर्ट पहना था जो उसके घुटनों तक आ रहा था और पैरों में कढ़ाईदार चप्पलें। मुझे मानना पड़ा कि नाज़ुक और गुलाबी से उसके पैर वास्तव में बहुत सुंदर थे।
माधव के गाल पर अभी भी एक काला निशान था, जिसे देख मेरे दिल को थोड़ी तसल्ली मिली।
पास ही एक बड़ा पानी का बंद बनाया हुआ था जिसमें एक महावत अपने हाथी से करतब करवा रहा था। हम उसे देखने के लिए मुड़े। शायद मैं पानी के ज़्यादा क़रीब खड़ा था, जब पीछे से मुझे एक धक्का लगा और मैं पानी में जा गिरा। आस-पास सब हंसने लगे थे। पानी से तरबतर मैं उठा, लेकिन अपने पीछे किसी को ना पाया। इस में समझने की कुछ बात ही नहीं थी कि माधव ने ही मुझे गिराया था और अब वहाँ से भाग खड़ा हुआ था।
पानी में धकेले जाने से ज़्यादा मुझे दुःख इस बात का था कि मैं अपना सबसे अच्छा ब्लेज़र पहन कर आया था। वही जिसे मैं अक्सर आपके साथ शाम को बाज़ार जाते समय पहना करता था।
उस दिन मैं छिपता-छिपाता घर पहुँचा ताकि कहीं कोई देख न ले और आपसे न कह दे। घर आते ही मैंने ब्लेज़र को छिपा दिया और तब तक छिपाए रखा जब तक तीन हफ़्ते का जेब खर्च बचा कर उसे साफ़ नहीं करवा लिया। मुझे याद है आपकी अर्थपूर्ण निगाह जब उन दिनों मैं सिर्फ़ पैंट-शर्ट पहन आपके साथ बाज़ार ज़ाया करता था।
हरनाम सिंह को याद था वह दिन, जब उनके पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति, जो अपने परिवार के साथ सर्कस में मौजूद थे, ने आकर वह वाक़या उन्हें सुनाया था। इसलिए उन्होंने अमन से उसके ब्लेज़र, जिसे वह बड़े नाज़ से पहना करता था, के बारे में कोई सवाल नहीं किया था।
अगली बार मैंने अनामिका को स्कूल के फ़ेयरवेल फ़ेस्टिवल में देखा। उस रोज़ मैं काफ़ी खुश था, मैंने एक नया, क़रीने से प्रेस किया हुआ सूट पहना था, और मुझे लग रहा था कि मैं काफ़ी स्मार्ट दिख रहा हूँ। लेकिन फिर मैंने माधव को देखा, जो एक उम्दा सूट पहने अपने पिता की कार से उतर रहा था। अनामिका उसके साथ खड़ी थी। मैंने मन में सोचा था कि क्या मैं भी कभी एक कार ले सकूँगा। मैंने निश्चय किया कि छात्रवृत्ति पाने के लिए अब से ट्रैक पर जाना छोड़ दूँगा।
हम सब स्कूल के हॉल में एकत्रित हो गए थे। लेकिन मेरी नज़र थी जैसे अनामिका से जुदा ही नहीं होना चाहती थी। उसने एक लम्बी सी लाल पोशाक पहनी थी और एक सुनहरी बेल्ट उसकी पतली सी कमर को घेरे थी। जाने क्यूँ मैं रुक ना सका और उनके पास गया, "क्या तुम मेरे साथ एक डान्स करना चाहोगी?" मेरे मुँह से निकला।
बस एक पल के लिए मैंने अनामिका की आँखों में देखा। उस पल में अगर उसने मुझसे कहा होता कि दोबारा पूछने से पहले जाओ और एक हज़ार क़त्ल कर के आओ, तो मैं वो भी करने के लिए तैयार था। लेकिन उसने कुछ न कहा।
"अपनी औक़ात वाली कोई ढूँढ ले फटेले।" माधव ने कहा था और हंस पड़ा। उसके दोस्त भी खिसियाते हुए हंसने लगे।
अनामिका के चेहरे पर भी एक अजीब सा भाव आया था और चला गया।
मैं शर्मसार वहाँ से उल्टे पैर घर लौट आया।
मुझे नफ़रत थी उन लोगों से, उनके दोस्तों से, उनके पैसों से, और उस लड़की की ख़ूबसूरती से, जिसे मैं कभी पा नहीं सकता था।
फिर किसी ने मुझे बताया कि माधव आगे की पढ़ाई के लिए विलायत जा रहा है। मैंने धावकी छोड़ दी, दोस्तों से जो थोड़ा बहुत मिलना-जुलना होता था वह भी छोड़ दिया। मैं पढ़ाई में दिन-दोगुनी रात-चौगुनी मेहनत करने लगा। उस दौरान मैंने अनामिका को एक-दो बार से ज़्यादा नहीं देखा, लेकिन सोचा अक्सर था।
आख़िरकार मेरे जीवन में कुछ अच्छा हुआ। मुझे यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मिल गई। मुझे याद है आपका चेहरा, जिसपर सदैव एक निर्मल सा भाव होता है, लेकिन उस दिन आप भी अपना गर्व छिपा ना सके थे।
उस रोज़ मेरा नाम स्कूल की असेंबली में पुकारा गया। तब मैंने मन ही मन सोचा था कि क्या हमारे स्कूल की किसी सहेली ने उसे भी यह बात बताई होगी?
 
Last edited:

Lews Therin Telamon

It was a pleasure to burn
Supreme
536
494
64
यूनिवर्सिटी आए हुए मुझे कुछ तीन महीने हो चले थे। मैं यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रहा करता था और उस रोज़ आप भी मिलने आए हुए थे। आपको याद होगा हम टैगोर साहब का एक प्ले, चित्रा, देखने नैशनल थिएटर गए थे।
अनामिका भी अपने परिवार के साथ वहां आई थी। तब तक मैं नहीं जानता था कि हम एक ही शहर में हैं। उनकी सीट हमसे कुछ आगे थी। शायद उसके कॉलेज के कुछ लड़के-लड़कियाँ साथ आए थे। इंटेरवल के दौरान मैंने उसे उनसे हंसते, बात करते देखा था। मगर कम से कम इस बार माधव वहाँ न था। नाटक में क्या हुआ मुझे कुछ याद नहीं, मेरी नज़र तो बस अनामिका पर टिकी थी। लेकिन उसका ध्यान मेरी तरफ़ न पड़ा था।
जब हम बाहर आए तो उसे अपने माता-पिता से विदा लेकर कॉलेज के दोस्तों के साथ जाते हुए देखा। आपके कहने पर हम राव साहब से दुआ-सलाम करने उनके पास गए थे। हालाँकि उनका बर्ताव सभ्य था मगर उनके स्वभाव से मैं जान गया था कि अपने कुलीन मित्रों के सामने हमसे मिलना उन्हें रास ना आया था। उस पल, पहली बार मुझे अपने गरीब होने पर शर्मिंदगी का एहसास हुआ था।
उस दिन के बाद अनामिका मेरे ख़यालों से कभी जुदा न हुई। सोते-जागते मैं सिर्फ़ उसी को सोचता था। जितना भी मैं उसके बारे में पता कर सकता था मैंने किया। वह शहर के ही एक बड़े कॉलेज में पढ़ रही थी, जहां सिर्फ़ रसूखदार लोगों के बच्चे ही पढ़ा करते थे। उसे सभी चाहते थे, ख़ासतौर पर हम लड़कों की बिरादरी में उसकी चर्चा जब-तब हुआ करती थी। जब भी उसकी बात होने लगती मैं कोई न कोई बहाना कर वहाँ से निकल जाता था।
कॉलेज में आने के बाद मैंने धावकी फिर से शुरू कर दी थी। क़िस्मत की ही बात रही होगी कि शहर के विभिन्न कॉलेजों की ट्रैक-मीट का आयोजन हमारे यूनिवर्सिटी ग्राउंड पर किया गया। उस से भी बढ़कर यह कि फ़र्स्ट-ईयर का छात्र होने के बावजूद मैंने टीम में स्थान पाया था। प्रतियोगिता शुरू होने से पहले हम सभी धावक मैदान में वर्जिश कर रहे थे जब मैंने उसे शामियाने में आते हुए देखा। उसके साथ एक लड़का था और वे दोनों हाथ थामे थे। मेरा दिल बैठ गया, एकबारगी सोचा कि दौड़ से अपना नाम कटवा लूँ, मगर जब तक मैं सोच-विचार करता दौड़ शुरू हो गई।
पिस्टल की कड़कदार आवाज़ के साथ दौड़ का आग़ाज़ हुआ, मैं सबसे आख़िर में भागा। मेरा दिल ज़ोरों से धड़क रहा था, जेटोपेक आज मेरे विचारों से कोसों दूर था। आज तक मैं इतनी बड़ी दर्शक दीर्घा के सामने नहीं दौड़ा था। मगर मुझे डर था स्टैंड के उस हिस्से के सामने से गुजरने का जहां अनामिका और उसका वह पुरुष मित्र खड़े थे।
जब मैं पहली दफ़ा उनके सामने से गुजरा तो मेरा मन "फटेला, फटेला, फटेला!" की वो आवाज़ सुनने के लिए पक्का हो चुका था। मगर कुछ ना हुआ, शायद उसने मुझे पहचाना भी नहीं था। मेरा दिल और बैठ गया, उसका कुछ ना कहना, मेरे लिए उसकी नफ़रत भरी आवाज़ से भी ज़्यादा निराशाजनक था।
लेकिन मैं ग़लत था, उसने मुझे पहचान लिया था। अगली बार जब मैं दौड़ता हुआ उनके सामने से गुजरा तो उसे स्टैंड की रेलिंग के क़रीब खड़ा पाया, वो मुझे ही देख रही थी। मैं बता नहीं सकता बाबा उस पल मेरे दिल की हालत क्या हुई होगी। उस वक्त मैं चौथे स्थान पर था। उसकी एक नज़र ने मानो मुझे नई ऊर्जा से भर दिया, मेरे पंख लग गए। देखते ही देखते मैं तीसरे और फिर दूसरे स्थान पर आ गया। पहला धावक भी मेरी पहुँच से कुछ ही कदम आगे था जब मैं आख़िरी पड़ाव पार करने के लिए उसके सामने से गुजरा।
वो मेरे जीवन की तीसरी दफ़ा थी जब मैंने उसकी आवाज़ सुनी।
"अमन तुम जीतोगे, तुम जीतोगे।"
मैं ऐसा कभी ना दौड़ा था जैसा उस रोज़ दौड़ा। आगे और आगे, बाक़ी सभी पीछे छूट गए। अंतिम रेखा से कुछ ही कदम पहले मैं अपने आप को रोक ना सका और एक क्षण मुड़ कर उसकी ओर देखा। उसका चेहरा दमक रहा था, मानो सूर्य उसके माथे पर उतर आया हो। पीछे आ रहे धावकों को देख मैंने सोचा था कि ट्रेनिंग के दौरान हमें यह भी बताया जाना चाहिए कि प्यार आपको जेटोपेक सा तेज बनाने की शक्ति रखता है।
हमसे पहले ही कहा गया था कि यूनिवर्सिटी की विजय पट्टी का रिबन थोड़ा कस कर बांधा जाता है सो पार करते समय इसका ध्यान रखें। अनामिका को देखते हुए जीत हासिल करने की चाह में मैं यह बात भूल चुका था। एक झटके के साथ मैं अपने स्वप्न से बाहर आया, गिरा तो नहीं, मगर लड़खड़ा ज़रूर गया था। लेकिन मैं रुका नहीं, ऐसा लग रहा था कि अगर मैं वहाँ रुक गया तो यह सुनहरा सपना टूट जाएगा। मैं भागता हुआ खिलाड़ियों के लिए बने शामियाने तक आ गया।
कुछ देर बाद जब मेरे साथी वहाँ आए तो किसी ने बताया कि मैंने कॉलेज का पिछला रिकार्ड छह सेकंड से तोड़ दिया है। मगर मेरे मन में तो सिर्फ़ वही थी, ऐसा क्या हुआ होगा जिसने उसका स्वभाव इतना बदल दिया था, यह सवाल मुझे खाए जा रहा था।
उस शाम यूनिवर्सिटी के एथलेटिक्स क्लब में एक पार्टी का आयोजन हुआ। मगर मैं नहीं गया, मैं बस एकांत चाहता था। सो मैंने लाइब्रेरी जा कर एक पुराना लेख, जिसे मैं काफ़ी समय से टालता आ रहा था, उसे पूरा करने का मन बनाया। शाम ढले लाइब्रेरी लगभग ख़ाली थी, कोई इक्का-दुक्का छात्र-छात्राएँ ही रहे होंगे। जहां मैं बैठा था वहां तो कोई भी नहीं था। मैं अपने लेख का दूसरा पन्ना पूरा कर रहा था जब मुझे पीछे से किसी के आने का आभास हुआ।
मैं मुड़ पाता उस से पहले ही वो मेरी मेज़ के क़रीब आ खड़ी हुई। मैंने नज़र उठा कर उसकी ओर देखा।
"सॉरी, शायद मैं तुम्हें डिस्टर्ब कर रही हूँ, लेकिन तुम पार्टी में नहीं आए..." उसने कहा और चुप हो गई।
मैं कुछ भी न बोल सका। बस एकटक उस खूबसूरत सी मूरत को निहारता रहा। उसने एक आसमानी स्कर्ट पहना था और एक तंग सा लाल स्वेटर जो उसके ऐफ़्रडाइटी से सीने को प्रदर्शित कर रहा था। वो सपाट सीने वाली दुबली सी लड़की कहीं पीछे छूट गई थी।
"वो मैं ही थी जिसने स्कूल की दौड़ में तुम्हें फटेला कह कर चिढ़ाया था।" मुझे चुप पाकर वो बोली, "मैं अपनी उस हरकत के लिए हरगिज़ शर्मिंदा हूँ। उस रात फ़ेयरवेल के समय भी मैं तुमसे माफ़ी माँगना चाहती थी, मगर माधव के सामने कुछ कहने की हिम्मत न कर सकी।"
किसी तरह मैंने हामी में सिर हिला कर जताया कि मैं उसकी बात सुन रहा था। मेरा दिल कुछ कह रहा था और दिमाग़ कुछ और, मगर ज़ुबान चुप रही।
"मैंने फिर कभी उससे बात नहीं की," उसने आगे कहा, "लेकिन शायद तुम वह सब भूल गए होगे..."
मुझे चुप देख शायद उसे लगने लगा था कि उसने वहाँ आकर गलती कर दी है। वह जाने के लिए मुड़ने लगी थी जब मैंने किसी तरह दिल थाम कर पूछा, "क्या तुम एक कॉफ़ी पीना चाहोगी?"
मैंने ऐसे जताया था कि मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता अगर वो कहे कि उसे अपने मित्र के पास लौटना है। हालाँकि मुझे फ़र्क़ पड़ता, इतना पड़ता कि शायद मैं उसकी ना सुन रो पड़ता। लेकिन उसने रुकते हुए "हाँ" में सिर हिलाया और खड़ी रही। मैं आश्चर्यचकित सा उसकी सुरमई आँखों में देखता रह गया।
हम लोग लाइब्रेरी में ही बनी कॉफ़ी शॉप में गए, उस वक्त उतना खर्च भी मेरे लिए पंद्रह दिन के जेब खर्च से ज़्यादा ही रहा होगा।
मेरे ख़यालों के इतर, वो मेरे बारे में बहुत कुछ जानती थी। उसने फिर एक बार उस पुरानी बात के लिए मुझसे माफ़ी मांगी। उसने कोई बहाना नहीं बनाया, किसी और पर दोष नहीं मढ़ा, सिर्फ़ अपने आचरण के लिए शर्मिंदगी ज़ाहिर की। उस दिन के बाद हमने पूरा सेमेस्टर साथ बिताया। हम साथ में पढ़ाई करते, साथ में खेलते और साथ ही घूमने फिरने जाते, मगर सोते अलग। उस दूसरे लड़के का क्या हुआ मुझे नहीं पता, न उसने कभी कुछ कहा और ना ही मैंने कभी पूछा।
उस साल छुट्टियों में घर आने पर मैंने विरले ही कभी आपके सामने उसकी बात की होगी। मगर आप शायद जान गए होंगे कि मैं उसे कितना चाहता था। आख़िर आपसे मैं कभी कुछ छिपा ना सका हूँ। लेकिन आप हमारे रिश्ते से सहमत थे या असहमत यह मैं न जान सका।

हरनाम सिंह पढ़ते-पढ़ते रुक गए। जब शमा, जो उनके यहाँ घरेलू काम काज करने आया करती थी, ने उन्हें अमन और अनामिका के बारे में बताया था तो वे अपनी नाराज़गी छिपा न सके थे। वे भी ग़लत न थे, आख़िर उन्होंने दुनिया देखी थी और अपनी हैसियत से बाहर जाने वालों को गिरते भी देखा था। फिर उन्होंने अपने दिल को दिलासा दिया था कि कच्ची उम्र का प्रेम है, समय के साथ बच्चों को दुनियादारी की समझ हो जाएगी और राहें जुदा हो जाएंगी। शायद वे इस से ज़्यादा ग़लत कभी न हुए थे।
 
Last edited:

Lews Therin Telamon

It was a pleasure to burn
Supreme
536
494
64
जब भी मैं अनामिका के घर गया, उसके परिवार ने उसी सभ्यता का आवरण लिए मेरा सत्कार किया जो उस रोज़ थिएटर के बाहर मैंने महसूस की थी। तमाम सदाचार के बाद भी वे कभी-कभी मेरी पहचान के प्रति अपने ख़यालात छिपा ना पाते थे। मैंने जब भी अनामिका से हमारे बीच की इस सामाजिक दूरी का ज़िक्र किया था, उसने उसे मेरा वहम बता टाल दिया था। मगर हम दोनों जानते थे कि यह सच नहीं था। मेरी हर क़ाबिलियत के बावजूद उसके परिवार को लगता था कि मैं उनकी बेटी का हाथ थामने लायक़ नहीं हूँ, और ना कभी हो सकूँगा।
मैं वह दिन कभी नहीं भूल सकूँगा जब पहली बार मैंने उसे प्यार किया। अनामिका ने अपने फ़ाइनल ईयर में अकादमिक गोल्ड मेडल जीता था। हम दोस्तों के साथ शहर के पास ही एक पिकनिक पर जाने वाले थे। उसे शायद अपने कमरे से कुछ सामान लेना था, सो हम उसके पी.जी. गए। सोचा था दो मिनट का काम है फिर वहाँ से चल चलेंगे। मगर एकांत के कुछ क्षण हमें मुश्किल ही मिला करते थे। उस पल जो मैंने उसे अपनी बाहों में लिया तो फिर भोर हुए ही हम जुदा हुए। कुछ भी सोचा-समझा नहीं था, हम दोनों के लिए वो पहली बार था।
मैंने उस से कहा था कि मैं उस से शादी करूँगा, पहली बार शायद सभी लड़के यही वादा करते हैं, फ़र्क़ यह कि मेरा वादा सच्चा था।
फिर कुछ हफ़्ते बाद अनामिका का मासिक नहीं हुआ। हम दोनों घबरा गए थे लेकिन फिर भी मन को ढाँढस बँधाए एक और महीना इंतज़ार किया। बात फैल न जाए इस डर से शहर के किसी भी डॉक्टर के पास वह नहीं जाना चाहती थी। अगर उस वक्त मैंने आपसे सब सच-सच कह दिया होता तो शायद मेरी ज़िंदगी कुछ और ही होती। मगर मैं न कह सका, और उसका पूरा दोष मेरा ही रहेगा।
जब उसका अगला मासिक भी न हुआ तो हम समझ गए कि हमारे पास ज़्यादा समय नहीं बचा था। शायद चंद महीने। हमने तय किया कि पहले अनामिका की माता श्री को यह बात बताई जाए। आख़िर माँ में एक सहिष्णुता होती है जो अपने बच्चों की तमाम ग़लतियों के बाद भी उनके लिए ढाल बन उन्हें बचाती है। मैंने अनामिका से शादी करने की ठान ली थी। मैं उसके साथ जाना चाहता था लेकिन तमाम दुहाई देकर उसने मुझे रोक दिया। उसने कहा कि वह अपनी माँ से खुद बात करना चाहती है, और जल्द ही वापस लौट आएगी।
मैंने उसे कहा कि अगर दो दिन में मुझे कोई ख़बर नहीं मिली तो मैं उसके घर आ धमकूँगा। जिसपर उसने भीनी सी मुस्कान के साथ मुझे एक मज़ाक़िया घूँसा जड़ दिया था।
मेरे दो दिन ऐसे बीते जैसे दो साल। एक-एक पल काटना मुश्किल हो गया था। पूरा समय मैं ना बैठ सका न लेट सका, बस कमरे में चहलक़दमी करता और खिड़की से उसकी राह तकता। जब दूसरे दिन की शाम ढलते-ढलते भी अनामिका नहीं लौटी तो मैं रह ना सका। मैं शाम की बस से हमारे शहर लौटा और अंधेरी गलियों से होता हुआ उसके घर जा पहुँचा। उसके कमरे की बत्ती जल रही थी। मैंने जा कर दरवाज़ा खटखटाया, उसके पिता ने दरवाज़ा खोला।
"अब क्यों आए हो यहाँ?" उन्होंने पूछा था, उनकी आँखें मेरे चेहरे पर जमीं थी।
"मैं आपकी बेटी से प्यार करता हूँ, मैं उस से शादी करना चाहता हूँ।" मैंने बेझिझक कहा था।
"वो तुम जैसे से कभी शादी नहीं करेगी।" उन्होंने कहा और दरवाज़ा बंद कर दिया।
उसके पिता चिल्लाए ना थे, ना ही उन्होंने दरवाज़े को ज़ोर से बंद किया था। बस बंद कर दिया। मेरे लिए यह उनके ग़ुस्से और चिल्लाने से भी बुरा था। मैं बहुत देर तक उसके घर के बाहर खड़ा रहा, हल्की बारिश भी होने लगी थी। आगे क्या करूँ, कैसे करूँ यह सोचते-सोचते रात गहरा गई, उसके कमरे की बत्ती भी अब बुझ चुकी थी।
मैं घर नहीं आ सकता था, सो एक सराय में जा ठहरा। रात बीतते समय ना लगा। अगली सुबह मैंने एक टेलीफोन बूथ से उसके घर फ़ोन किया। उसकी माँ ने फ़ोन उठाया था। मैंने अपना परिचय दिया मगर वे चुप रहीं। जब मैंने अनामिका के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वो वहाँ नहीं है और उसके लौट आने का पता करने पर एक सधे स्वर में बताया गया कि उसे वापस आने में कुछ समय लगेगा।
वो 'कुछ समय' एक बरस में बदल गया, मैंने दोस्तों से पूछा, उसके कॉलेज में पता किया, जितना हो सकता था उसे ढूँढा मगर न जान सका कि उसे कहाँ भेज दिया गया था।
फिर एक दिन वो हमारे शहर लौट आई, मेरे बच्चे और एक पति के साथ। कॉलेज की एक लड़की, जिसके पास आम तौर पर सभी मसालेदार क़िस्से हुआ करते थे, उस से मुझे वह ख़बर मिली थी। एक हफ़्ते बाद मुझे एक काग़ज़ मिला, दो पंक्तियाँ थी सिर्फ़, उसे भूल जाने का आग्रह और कभी ना मिलने की विनती।
मैंने सुना कि वह अपनी पढ़ाई पूरी कर रही है, उसने वापस कॉलेज आना शुरू कर दिया था। मगर मैंने उसके लिखे को आत्मसात् कर उस से कभी मिलने की कोशिश न की। अपने डॉक्टरेट की पढ़ाई ख़त्म कर मैंने उस साल वो शहर हमेशा के लिए छोड़ दिया। मेरा घर लौट कर ना आना शायद आपको खला होगा। छोटे शहरों में बातें कहाँ छिपी रहती हैं, मेरे और अनामिका के बारे में सभी लोग जानते थे। मैं नहीं चाहता था कि मेरी वजह से आपको और तकलीफ़ सहनी पड़े। तब तक मैं हमारे रिश्ते को लेकर आपकी नाराज़गी के बारे में भी जान चुका था।

हरनाम सिंह एक बार फिर पढ़ते-पढ़ते रुक गए थे। एक दिन राव साहब ने उन्हें बुला कर अगली रोज़ अपना बकाया मुनीम से ले जाने को कहा था। शायद उस समय उन्हें अमन के पास जाना चाहिए था उसे यह बताने कि उसके प्रति उनका प्यार बदला नहीं था। मगर जगहँसाई का घाव हरा था और वे न जा सके थे। कुछ पल बीते दिनों की याद कर वे आगे पढ़ने लगे।
 
Last edited:

Lews Therin Telamon

It was a pleasure to burn
Supreme
536
494
64
नया शहर मेरे लिए एक नई ज़िंदगी लेकर आया। यहाँ मेरी क़ाबिलियत ही मेरी पहचान थी, नए दोस्त भी बने, जिनमें लड़के भी थे और लड़कियाँ भी। मगर अनामिका की याद मेरे दिल से न मिट सकी, एक पल भी अगर मैं ख़ाली होता था तो उसी को सोचता, उसी को चाहता। अपने दिल की व्यथा सुनाने के लिए मैंने कितने ही पत्र उसे लिखे होंगे, मगर पोस्ट एक भी नहीं किया। दर्द हद से गुज़र जाने पर एक-दो बार मैंने उसके घर फ़ोन ज़रूर किया मगर फिर चुपचाप काट भी दिया। लेकिन अगर वो कभी फ़ोन उठा भी लेती तो शायद मैं कुछ कह ना सका होता, मैं सिर्फ़ उसकी आवाज़ सुनना चाहता था।
मैं अब बैरिस्टर हो गया था, मेरे पास वो सब था जो कभी मैं माधव और उसके दोस्तों के पास देख कर पाने की चाह रखता था, और मेरे पास कुछ भी नहीं था। एक-दो बार मैं लड़कियों से भी घुला-मिला मगर कुछ हफ़्ते से ज़्यादा वो रिश्ते चल ना सके। मैं जैसे एक दिशा में यंत्रमान सा चलता जा रहा था, काम, काम और काम, और बाक़ी समय में उसकी याद। मैंने दौड़ना छोड़ दिया था, बस सुबह एक घंटा पार्क में जॉगिंग किया करता था।
आपको भी मैंने अपने पास बुला लिया था, लेकिन हरदम आपकी सवालिया निगाहों से बचता रहा। मैं हमेशा आभारी रहूँगा कि आपने कभी मुझ पर शादी को लेकर दबाव नहीं बनाया। आपकी इतनी अपेक्षा करने के बाद शायद आपको खुश करने के लिए मैं शादी कर लेता, मगर खुश न रह पाता और किसी अभागी लड़की का जीवन भी ख़राब कर बैठता।
फिर एक रोज़ मुझे देश की एक नामी वकालती फ़र्म से सम्पर्क किया गया। वे मुझे पार्ट्नर बनाना चाहते थे। उनका प्रस्ताव सुनते वक्त भी मैं यही सोच रहा था कि अनामिका के पिता अगर यह जानते तो शायद... मैं आगे न सोच सका। नए काम के लिए मुझे फिर से शहर बदलना पड़ा लेकिन इस बार आप मेरे साथ नहीं आए। आपने वहीं कुछ साथी बना लिए थे और मकान भी हमारा अपना था। सो मैं अकेला ही एक नए परिवेश में ख़ुद को ढालने निकल पड़ा था।
कमाई और बढ़ गई, रहन-सहन भी पहले सा न रहा, मगर दिल न बदल सका। अब जब मैं एक नहीं दस कारें ख़रीद सकता था तो मुझे एक भी ज़्यादा मालूम पड़ने लगी। पैदल ही पार्क के सामने बने अपने बंगले से दफ़्तर तक ज़ाया करता था। मेरा काम ही मेरा सुकून बन गया था।
गुरुवार का दिन था, उस रोज़ मैं किसी काम के सिलसिले में शहर से बाहर गया था। वापस आते-आते शाम के पाँच बज गए होंगे। एक लाल बत्ती पर ड्राइवर ने गाड़ी रोकी, मैं दफ़्तर की सोच में डूबा हुआ खिड़की से बाहर देख रहा था जब मुझे एक जाने-पहचाने साये का आभास हुआ। सड़क पर दौड़ती गाड़ियों के उस पार फ़ुटपाथ पर वह खड़ी थी, एक छोटे बच्चे का हाथ थामे, मेरा बेटा।
मैंने ध्यान दिया तो पाया कि वे दोनों बस स्टॉप पर खड़े थे। अनामिका के चेहरे पर एक सौम्य सा भाव था, जैसे आस-पास की दुनिया से वह बेख़बर हो। बच्चे का हाथ, हमारे बच्चे का हाथ उसने कस कर थामा हुआ था जो उसे इधर-उधर जाने से रोके हुए था। मैं एकटक साँस थामे उन्हें देखता रहा जब तक एक झटके से गाड़ी चल ना पड़ी।
मैंने ड्राइवर से दफ़्तर न जाकर सीधा घर चलने को कहा। वो अगला हफ़्ता मैं दफ़्तर से छुट्टी लेकर उस बस स्टॉप के सामने गाड़ी लिए खड़ा रहा। लेकिन वे दोनों मुझे फिर ना दिखे। शायद वो किसी रिश्तेदार के यहाँ या कुछ दिन इस शहर में कुछ काम से आई होगी और अब वापस जा चुकी है, यह सोचकर मैंने अपने दिल को दिलासा देना चाहा था। मुझे यहाँ तक लगने लगा था कि उसे देखना मेरा भ्रम था शायद। मगर दो रोज़ बाद मैं फिर उसी बस स्टॉप के सामने खड़ा था।
कुछ देर बाद मुझे वे दोनों सड़क की दूसरी तरफ़ से आते दिखे। मैं किसी अपराधी सा छुप कर उन्हें देखता रहा। उस रोज़ मैंने उस बस का पीछा किया, वे दो या तीन स्टॉप बाद बस से उतर गए, और एक कपड़ों की दुकान में गए। यह सोचकर कि शायद वो कुछ ख़रीद रही होगी, मैं बाहर रुका रहा। लेकिन जब काफ़ी समय बीता मगर वे बाहर ना आए तो मेरा धैर्य जवाब दे गया। मैं चुपके से उस दुकान के सामने से गुजरा और अंदर झांका। मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने अनामिका को काउंटर के पीछे खड़े पाया, वो वहाँ काम करती थी।
उस रोज़ दफ़्तर में मैंने अपनी सेक्रेटरी से उस दुकान के बारे में पूछा था। उसने हंस कर कहा था कि अगर मेरी शादी हुई होती तो शायद मुझे यह बात पूछनी ना पड़ती। वह शहर की सबसे महंगी और फ़ैशनेबल कपड़ों की दुकान थी। आगे क्या हुआ उसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं। मैंने जितना हो सकता था अनामिका के बारे में पता लगाया। उसके पति एक बड़ी कार कम्पनी के डाइरेक्टर थे और अक्सर विलायत आते-जाते रहते थे।
अंत में मैंने तय किया कि सिर्फ़ एक बार मैं अनामिका से बात करने की कोशिश करूँगा। लेकिन उस से किस तरह सम्पर्क करूँ, यह तय करने में मुझे दो दिन और लग गए। मैं फ़ोन कर उसे परेशान नहीं करना चाहता था, सो मैंने तय किया कि उसी की तरह एक छोटा सा नोट उसे भेजूँगा। मैंने लिखा,

अनामिका,
तुम शायद नहीं जानती लेकिन मैं तुम्हारे ही शहर में रहता हूँ। मुझे भी यह बात कुछ दिन पहले ही मालूम हुई। क्या हम मिल सकते हैं? मैं रॉयल ओक होटल के लाउंज में शाम को 6 से 7 बजे के बीच इस हफ़्ते तुम्हारा इंतज़ार करूँगा। अगर तुम नहीं आई तो वादा करता हूँ कि यह मेरा तुमसे आख़िरी सम्पर्क होगा।
अमन

मैं होटल में उस शाम 6 बजे से आधा घंटा पहले ही पहुँच गया था। बैठने के लिए मैंने लाउंज के गेट के सामने वाली एक सीट को चुना और एक कॉफ़ी ऑर्डर कर दी। बैरे ने मुझसे पूछा था कि क्या मैं किसी का इंतज़ार कर रहा हूँ और मैंने उस से कहा था कि मुझे मालूम न था।
वो नहीं आई, लेकिन फिर भी मैं लगभग 8 बजे तक वहाँ बैठा रहा। एक दिन बीता, फिर दूसरा, फिर तीसरा, शुक्रवार आते-आते बैरे ने भी मुझे सवाल पूछना बंद कर दिया था। मैं बैठा हुआ एक और कॉफ़ी को ठंडा होते देख रहा था जब लाउंज का दरवाज़ा खुला और वह अंदर आई। उस से पहले जितनी भी बार कोई महिला अंदर आई थी, वह कहीं अनामिका तो नहीं यह सोच मेरा दिल ज़ोरों से धड़क उठा था। मगर अब वास्तव में उसे अपने सामने देख मानो थम सा गया।
उसने नए-फ़ैशन वाला हरा सूट पहना था और एक कड़पदार रेशमी चुन्नी लिए थी। उसके बाल एक जुड़े में बंधे थे। मैं खड़ा हुआ, उसने मुझे देखा और मेरी ओर बढ़ी। हमारे बीच ना कोई स्पर्श हुआ ना कोई अभिवादन। हम बस बैठ गए, कुछ देर तक कोई बात भी न हुई। बीते सालों में उसके चेहरे पर एक कठोरता आ गई थी जो मैंने पहले कभी न देखी थी।
आख़िर मैंने कहा, "मुझे लगा था तुम नहीं आओगी।"
"मुझे नहीं आना चाहिए था..." वो बोली।
कुछ पल और बीत गए।
"क्या मैं तुम्हारे लिए एक कॉफ़ी मँगवा दूँ?" जब चुप्पी असहजता में बदलने लगी तो मैंने पूछा।
"हाँ, ठीक है।"
"बिना चीनी के?"
"हाँ"
"तुम ज़रा नहीं बदली।"
अगर कोई हमारी बातें सुन रहा होता तो उसे वे निश्चय ही बचकाना लगतीं। बैरा कॉफ़ी लाकर रख गया। कुछ मिनट हम एक दूसरे से नज़र चुराते इधर-उधर की बातें करते रहे जब अचानक मैं बोल उठा,
"मैं अब भी सिर्फ़ तुम्हें ही चाहता हूँ।"
उसकी आँखों में आंसू भर आए, "और तुम्हें क्या लगता है, क्या मैं तुमसे प्यार नहीं करती? मैं तो अपने आदिव में हर रोज़ हर पल तुम्हें देखती हूँ।"
चुप्पी की दीवार जो हमारे बीच कब से खड़ी थी, ढह गई। उसने मुझे बताया कि पाँच साल पहले उसकी बात सुन उसके पिता ने उसे कुछ नहीं कहा था। लेकिन अगले दिन वे पूरे परिवार को लेकर पास ही के एक शहर, जहाँ उनके पुराने मित्र रहते थे, चले गए थे। उनके मित्र का बेटा हमेशा से ही अनामिका को चाहता था। उसके गर्भवती होने के बावजूद वह उस से शादी करने के लिए तैयार था। सबने सोचा कि कुछ समय बाद सब ठीक हो जाएगा, लेकिन उनके बीच कभी कुछ ठीक न हुआ। पति की लाख कोशिशों के बाद भी अनामिका उन्हें उस तरह से चाह ना सकी जैसा वो चाहते थे। एक-दूसरे के परिवार का ख़याल कर तलाक़ लेना उन्होंने उचित न समझा था। आख़िर वे परिवार की नज़रों से बचने के लिए इस शहर चले आए थे ताकि कम से कम अपनी अलग जिंदगियाँ जी सकें। अब अनामिका का अधिकतर वक्त अपने स्टोर और हमारे बेटे की देखभाल में ही गुजरता था।
जैसे ही उसने अपनी बात ख़त्म की, मैंने अपने हाथ से उसके गाल को छुआ था। उसने मेरा हाथ थाम उसे चूम लिया।
एक बार फिर हम मिलने लगे। दिन, हफ़्ते, और कुछ महीने बीते, हम दोनों ने मुस्कुराना सीखा ही था, जब शहर में बातें बनने लगी। यह दुनियाँ ऐसे लोगों से भरी पड़ी है जिन्हें बातें बनाने में मज़ा आता है, और जितने मुँह उतनी बातें। आख़िर अनामिका के पति तक बात पहुँची।
इस बार मैं उसके साथ गया। उसके पति तलाक़ के लिए राज़ी हो गए। उनकी बस एक शर्त थी कि छोटे आदिव को उनके पास रहने दिया जाए और उसके बीसवें जन्मदिन से पहले उसके पिता के बारे में ना बताया जाए। वरना उनकी और उनके परिवार की जगहँसाई होती। हमारी ख़ुशी की यह एक बहुत बड़ी क़ीमत थी, लेकिन हमारे पास और कोई रास्ता भी न था।
उनका तलाक़ हो गया। मेरी और अनामिका की शादी तय हो गई। हमने एक छोटा सा समारोह रखा था जिसमें सिर्फ़ कुछ घनिष्ठ मित्र और जानकर ही शामिल हुए थे। मैं जानता था कि उसके माता-पिता नहीं आएँगे, न आए। मगर मैं कभी नहीं समझ सका कि आप क्यों नहीं आए बाबा?

उन शब्दों को पढ़ते-पढ़ते हरनाम सिंह एक गहरे दुःख से भर उठे। उस दिन के बाद न जाने कितनी ही बार उन्होंने अपनी सोच, अपनी हठधर्मिता पर अफ़सोस किया था। जिसके चलते उन्होंने अपने प्यारे बेटे की इकलौती ख़ुशी को नज़रंदाज़ कर दिया था।
 
Last edited:

Lews Therin Telamon

It was a pleasure to burn
Supreme
536
494
64
  • Like
Reactions: Rawat@7

Lucky..

“ɪ ᴋɴᴏᴡ ᴡʜᴏ ɪ ᴀᴍ, ᴀɴᴅ ɪ ᴀᴍ ᴅᴀᴍɴ ᴘʀᴏᴜᴅ ᴏꜰ ɪᴛ.”
6,635
25,201
204
भोर हुई, बस्ती में सन्नाटा फैला था। शहर से थोड़ी दूर इंडस्ट्रीयल एरिया था, उसी के पास यह बस्ती बसी थी। बस्ती में रहने वाले लगभग सभी लोग आस-पास के उद्योगों में काम किया करते थे। अभी सूरज निकला न था लेकिन एक बड़ी फ़ैक्टरी का साइरन बजने लगा। रात में काम करने वाले मज़दूरों के लिए यह छुट्टी का इशारा था और दिन में ड्यूटी बजाने वालों के लिए उठ कर काम पर जाने का अलार्म। कुछ ही देर में बस्ती के घरों और गलियों में चहल-पहल होने लगी।

लेकिन बस्ती की तंग कच्ची गलियों में एक मकान, जो दूसरे मकानों से थोड़ा बेहतर और पक्का था, अभी भी सुनसान पड़ा था। यह सुपरवाइज़र साहब का मकान था। सुपरवाइज़र हरनाम सिंह लगभग 20 वर्षों से बस्ती में रह रहे थे। सुनी-सुनाई बात थी कि पहले वे बड़े शहर में रहा करते थे।

बस्ती के लोगों के लिए तो वे एक फ़रिश्ते समान थे। उनकी लिख-पढ़ और रुपए पैसे की हर सम्भव मदद वे किया करते थे। बस्ती के घरेलू झगड़े, मारपीट के इल्ज़ामात और बाक़ी सभी तरह के मसले कोर्ट-कचहरी से पहले सुपरवाइज़र हरनाम सिंह के यहाँ पेश हुआ करते थे, और अक्सर सुलझा भी वहीं लिए जाते थे।

वे सच में किसी फ़ैक्टरी के सुपरवाइज़र नहीं थे, बस एक ओहदा था जो किसी ने उनके नाम के आगे जोड़ दिया था, जो जुड़ा ही रह गया। लेकिन अब वे बूढ़े हो चले थे और उनकी ख़ैर-तबियत भी पहले सी ना रही थी। सो बस्ती के लोग सुबह होते ही पहले उनकी सुध-बुध लेते, फिर अपने काम पर जाते। हरनाम सिंह भी रोज़ सुबह एक काग़ज़ पेन ले, अपने टटपूँजिए बिसातियों की ख़ैर ख़बर लिया करते और अपनी दिनचर्या की शुरुआत किया करते थे।

उस रोज़ भी बस्ती के एक कारिंदे को उन्हें बुलाने के लिए दौड़ाया गया।

उस समय सुपरवाइज़र हरनाम सिंह अपने छोटे से कमरे में एक पुरानी चरमराती मेज़-कुर्सी पर बैठे थे। मेज़ पर उस रोज़ का कामकाज लिखने के लिए एक ख़ाली काग़ज़ रखा था। वे जानते थे कि कोई उन्हें बुलाने आता ही होगा, लेकिन वो ख़त जो उनकी मेज़ की दराज में रखा था, उन्हें बांधे हुए था। आख़िर उन्होंने दराज से ख़त निकाला और कांपती उम्रदराज़ उँगलियों से उसे खोल कर पढ़ने लगे।

बाबा,

"फटेला, फटेला, फटेला!" ये वो पहले शब्द थे जो मैंने उसके मुँह से सुने।

उस रोज़ इंटर-स्कूल एथलेटिक्स का पहला दिन था, स्कूल के मैदान में एक तरफ़ लकड़ी की बल्लियाँ लगा कर दर्शकों के लिए स्टैंड बनाया गया था। हमारे स्कूल से मुझे और एक और लड़के को 1500 मीटर की दौड़ के लिए चुना गया। मैदान छोटा होने की वजह से हमें गोलाकार ट्रैक के पाँच चक्कर पूरे करने थे। मैं तीसरा चक्कर पूरा कर स्टैंड के पास से गुजरा था जब मैंने उसकी आवाज़ सुनी। मैं उसे पहचान न सका, शायद वह किसी दूसरे स्कूल से आई थी।

मगर उसके बग़ल में खड़े माधव को मैं पहचान गया। स्कूल के शुरुआती सालों से ही उसे मेरी पहचान से ख़ास लगाव रहा था। 'फटेला' यह नाम उसी की देन थी, जब मैं पहली कक्षा में फटे जूते और अपनी देह से कुछ बड़ी स्कूल ड्रेस पहने दाखिल हुआ था। लेकिन शायद आपकी हिदायतों का असर रहा होगा कि मैं उसकी मलिन छींटाकशी को अब नज़रंदाज़ करना सीख गया था। मैं समझ गया कि शायद उसी ने उस लड़की को वो नारा लगाने के लिए उकसाया था।

उस वक्त इंटर-स्कूल एथलेटिक्स प्रतियोगिता जीतना मेरा सपना हुआ करता था और मैं नहीं चाहता था कि मेरा ध्यान भटक जाए। उन दोनों को मन से परे कर मैंने चौथा चक्कर शुरू किया। मेरे और दूसरे नम्बर के लड़के के बीच अब एक लम्बा फ़ासला था। लेकिन जब मैं एक बार फिर से दौड़ता हुआ दर्शकों के लिए बने स्टैंड के सामने से गुजरा तो उनकी तरफ़ देखे बिना न रह सका। वो अपने कुछ दोस्तों के बीच खड़ी थी, इस बार उसके ब्लेज़र से मैं जान गया कि वह हमारे स्कूल से नहीं थी।

उसकी दुबली-पतली सी काया देख मैंने सोचा कि उसके सपाट सीने की ओर इशारा कर कुछ ऐसा कहूँ जो साथ खड़े माधव को लड़ने के लिए उकसा दे। तब शायद आपके पूछने पर मैं यह कह सकता था कि हाथ पहले माधव ने उठाया था। फिर भी आप शायद जान जाते, क्योंकि माधव से लड़ाई करने के लिए मुझे किसी बहाने की ज़रूरत न हुआ करती थी।

दौड़ का पाँचवां और आख़िरी चक्कर शुरू हुआ। उस वक्त मैं अपने आप को चेकोस्लोवाकिया के महान धावक जेटोपेक से कम न समझ रहा था। दर्शकों, अध्यापकों और मेरे मित्रों की वाहवाही भरे नारे पहले ही मेरे मन में गूंजने लगे ही थे कि मैं एक बार फिर उनके सामने आ गया।

"फटेला, फटेला, फटेला!" इस बार उनकी आवाज़ और तेज थी। माधव और वो लड़की एक स्वर चिल्ला रहे थे, और पास खड़े उनके दोस्त हंसने लगे थे। बस कुछ ही कदम और इंटर-स्कूल प्रतियोगिता जीतने का मेरा सपना पूरा हो जाता। स्कोर बोर्ड पर लिखा समय बता रहा था कि मैं जीत ही नहीं रहा था बल्कि स्कूल रिकार्ड भी तोड़ने वाला था।

हमारे पी.टी. मास्साहब की आवाज़ मेरे कानों में गूंज रही थी, "अमन तुम कर सकते हो बेटा! रुकना नहीं।"

जेटोपेक कहता था कि एक धावक को अपनी एकाग्रता कभी नहीं खोनी चाहिए वरना वह कभी सफल नहीं हो सकेगा। लेकिन माधव और उस से भी ज़्यादा उसके संग उस लड़की का होना मुझे खलने लगा था, माधव ने मुँह बना कर एक भद्दा सा इशारा किया। मैं अपना आपा खो बैठा। मैं ट्रैक से हट उनकी तरफ़ दौड़ा। दर्शकों की ओर से एक ताज्जुब भरा स्वर उभरा मगर मेरे कानों में जैसे सीटियाँ बज रही थी। एक छलांग, और मैं बल्लियों के उस पार उनके सामने खड़ा था।

माधव ने एक हाथ हवा में उठा अपना चेहरा बचाना चाहा था मगर मेरा वार रोक ना सका। उस वार में मैंने अपनी पूरी ताक़त झोंक दी थी। वह लड़की अब माधव के पास ज़मीन पर घुटने टिकाए बैठी थी। उसने मुझे ऐसी नफ़रत से देखा जिसे मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। जब मैंने देखा कि माधव अब उठ कर मेरा सामना नहीं कर सकेगा तो मैं बल्लियाँ फाँद कर वापस ट्रैक पर आ गया। सभी धावक तब तक दौड़ पूरी कर चुके थे। मैं अपने फटे जूतों पर नज़र गड़ाए, धीरे-धीरे चलता हुआ अपनी हार की तरफ़ बढ़ने लगा।

"फिर हार गया, फटेले!" पीछे से उस दुबली सी लड़की की तीव्र आवाज़ आई थी।

कितनी ही बार आपने मुझे समझाया होगा कि हिंसा से धन-बल की तरक़्क़ी तो हो सकती है मगर इंसान और इंसानियत की तरक़्क़ी नहीं हो सकती। आप सही थे, मगर वो उम्र ही ऐसी थी कि आपकी बातें मुझे बेमानी लगती थी। जब मुझे पता लगा कि आप अनामिका, जिसका नाम मैं जान चुका था, के पिता की फ़ैक्टरी में काम करते हैं, मेरा खून खौल उठा था। आपको याद होगा कि मैंने आपसे वो नौकरी छोड़ देने को कहा था। आपने तब भी यही कहा कि राव साहब अच्छे आदमी हैं और अपने लोगों का ख़याल रखते हैं। मगर मैं कभी ना समझ सका। शायद एक बच्चा, जिसकी माँ ने इलाज के अभाव से दम तोड़ दिया हो, एक धनी मालिक की सहृदयता कभी नहीं समझ सकता।

ख़ैर, आपकी सहनशीलता का मुक़ाबला मैं न तब कर सका था, न आज।


सुपरवाइज़र साहब ने ख़त को मेज़ पर रखा और अपनी बूढ़ी आँखों को अंगूठे के पोरों से मसला। सधे हाथ से उकेरे वो अक्षर उन्होंने कभी अपने अमन को सिखाए थे। वह शुरू से ही पढ़ाई-लिखाई में होनहार रहा था, उसके शिक्षकों से कभी कोई शिकायत आई हो ऐसा याद ना पड़ता था। धीरे-धीरे उनके मन में भी एक आशा जगने लगी थी कि शायद एक दिन अमन उन्हें उस गरीब बस्ती से निकाल ले जाएगा जहां उनका बचपन और जवानी गुजर गए थे।

ख़त का पन्ना पलट वे पढ़ने लगे।

क्या आपको याद है मैंने आपसे पूछा था कि क्या उस लड़की को एहसास नहीं कि कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं होता, हमारा काम ही हमारी पहचान होता है। मैं आपका जवाब कभी नहीं भूल सका, जब आपने कहा था कि वो तुमसे लाख गुना बेहतर है अगर उसके दोस्त को मारना तुम अपनी बेहतरी समझते हो।

बहुत साल हुए जब मुझे आपकी बात का मतलब समझ आया, लेकिन उस रात मुझे आप सिर्फ़ एक कायर मालूम हुए थे।

कुछ समय बीता, मैंने अपना समय पढ़ाई और धावकी के बीच बाँट लिया था। जब मैं पढ़ नहीं रहा होता था तो ट्रैक पर अपनी ऊर्जा व्यय कर रहा होता था और जब ट्रैक पर नहीं होता था तो पढ़ रहा होता था। अब मेरा एक ही लक्ष्य था, यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति प्राप्त करना, ताकि मैं इस ज़िल्लत की ज़िंदगी से निकल सकूँ। मगर मैं नहीं जानता था कि अनामिका से मेरा सामना फिर होगा।

उस दिन मैं कुछ दोस्तों के कहने पर उनके साथ शहर में लगा सर्कस देखने गया था। आप नाराज़ होंगे यह सोचकर आपको बताया नहीं और लाइब्रेरी जाने का बहाना कर मैं घर से निकला था।

वह भी वहाँ आई हुई थी, माधव और उसके दोस्तों के साथ। उसके लम्बे बाल उसके कंधों पर झरते हुए उसके सीने पर आ रहे थे। मन ही मन एक बार फिर मैं उज्जड़पन से हंसा था, उस लड़की का सीना जैसे था ही नहीं। उसने एक स्कर्ट पहना था जो उसके घुटनों तक आ रहा था और पैरों में कढ़ाईदार चप्पलें। मुझे मानना पड़ा कि नाज़ुक और गुलाबी से उसके पैर वास्तव में सुंदर थे। माधव के गाल पर अभी भी एक काला निशान था, जिस देख मेरे दिल को थोड़ी और तसल्ली मिली।

पास ही एक बड़ा पानी का बंद बनाया हुआ था जिसमें एक महावत अपने हाथी से करतब करवा रहा था। हम उसे देखने के लिए मुड़े। शायद मैं पानी के ज़्यादा क़रीब खड़ा था, जब पीछे से मुझे एक धक्का लगा और मैं पानी में जा गिरा। आस-पास सब हंसने लगे थे। पानी से तरबतर मैं उठा, लेकिन अपने पीछे किसी को ना पाया। इस में समझने की कुछ बात ही नहीं थी कि माधव ने ही मुझे गिराया था और अब वहाँ से नदारद था।

पानी में धकेले जाने से ज़्यादा मुझे दुःख इस बात का था कि मैं अपना सबसे अच्छा ब्लेज़र पहन कर आया था। वही जिसे मैं अक्सर आपके साथ शाम को बाज़ार जाते समय पहना करता था।

उस दिन मैं छिपता-छिपाता घर पहुँचा ताकि कहीं कोई देख न ले और आपसे न कह दे। घर आते ही मैंने ब्लेज़र को छिपा दिया और तब तक छिपाए रखा जब तक तीन हफ़्ते का जेब खर्च बचा कर उसे साफ़ नहीं करवा लिया। मुझे याद है आपकी अर्थपूर्ण निगाह जब उन दिनों मैं सिर्फ़ पैंट-शर्ट पहन आपके साथ बाज़ार ज़ाया करता था।


हरनाम सिंह को याद था वह दिन, जब उनके पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति, जो अपने परिवार के साथ सर्कस में मौजूद थे, ने आकर वह वाक़या उन्हें सुनाया था। इसलिए उन्होंने अमन से उसके ब्लेज़र, जिसे वह बड़े नाज़ से पहना करता था, के बारे में कोई सवाल नहीं किया था।

अगली बार मैंने अनामिका को स्कूल के फ़ेयरवेल फ़ेस्टिवल में देखा। उस रोज़ मैं काफ़ी खुश था, मैंने एक नया, क़रीने से प्रेस किया हुआ सूट पहना था, और मुझे लग रहा था कि मैं काफ़ी स्मार्ट दिख रहा हूँ। लेकिन फिर मैंने माधव को देखा, जो एक उम्दा सूट पहने अपने पिता की कार से उतर रहा था। अनामिका उसके साथ खड़ी थी। मैंने मन में सोचा था कि क्या मैं भी कभी एक कार ले सकूँगा। मैंने निश्चय किया कि छात्रवृत्ति पाने के लिए अब से ट्रैक पर जाना छोड़ दूँगा।

हम सब स्कूल के हॉल में एकत्रित हो गए थे। लेकिन मेरी नज़र थी जैसे अनामिका से जुदा ही नहीं होना चाहती थी। उसने एक लम्बी सी लाल पोशाक पहनी थी और एक सुनहरी बेल्ट उसकी पतली सी कमर को घेरे थी। जाने क्यूँ मैं रुक ना सका और उनके पास गया, "क्या तुम मेरे साथ एक डान्स करना चाहोगी?" मेरे मुँह से निकला।

बस एक पल के लिए मैंने अनामिका की आँखों में देखा। उस पल में अगर उसने मुझसे कहा होता कि दोबारा पूछने से पहले जाओ और एक हज़ार क़त्ल कर के आओ, तो मैं वो भी करने के लिए तैयार था। लेकिन उसने कुछ न कहा।

"अपनी औक़ात वाली कोई ढूँढ ले फटेले।" माधव ने कहा था और हंस पड़ा। उसके दोस्त भी खिसियाते हुए हंसने लगे।

अनामिका के चेहरे पर भी एक अजीब सा भाव आया था और चला गया।

मैं शर्मसार वहाँ से उल्टे पैर घर लौट आया।

मुझे नफ़रत थी उन लोगों से, उनके दोस्तों से, उनके पैसों से, और उस लड़की की ख़ूबसूरती से, जिसे मैं कभी पा नहीं सकता था।

फिर किसी ने मुझे बताया कि माधव आगे की पढ़ाई के लिए विलायत जा रहा है। मैंने धावकी छोड़ दी, दोस्तों से जो थोड़ा बहुत मिलना-जुलना होता था वह भी छोड़ दिया। मैं पढ़ाई में दिन-दोगुनी रात-चौगुनी मेहनत करने लगा।

उस दौरान मैंने अनामिका को एक-दो बार से ज़्यादा नहीं देखा था, लेकिन अक्सर सोचा ज़रूर था। फिर आख़िरकार मैं एक अच्छी चीज़ पाने में सफल हुआ। मुझे यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मिल गई। मुझे याद है आपका चेहरा, जिसपर अक्सर कोई भाव नहीं होता, उस दिन आप भी अपना गर्व छिपा ना सके थे।


मेरा नाम स्कूल की असेंबली में पुकारा गया था। तब मैंने मन ही मन सोचा था कि क्या हमारे स्कूल की किसी सहेली ने उसे भी यह बात बताई होगी?
Nice update..

:congrats:for starting new story Bhai
 

Lews Therin Telamon

It was a pleasure to burn
Supreme
536
494
64
  • Like
Reactions: Rawat@7 and Lucky..

Rawat@7

Bad Is Never Good Until Worse Happens.
571
962
94
:congrats:For starting the new thread.
 
Top