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Adultery ☆ प्यार का सबूत ☆ (Completed)

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What should be Vaibhav's role in this story..???

  • His role should be the same as before...

    Votes: 19 9.9%
  • Must be of a responsible and humble nature...

    Votes: 22 11.5%
  • One should be as strong as Dada Thakur...

    Votes: 75 39.1%
  • One who gives importance to love over lust...

    Votes: 44 22.9%
  • A person who has fear in everyone's heart...

    Votes: 32 16.7%

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    192
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Kuresa Begam

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अध्याय - 118
━━━━━━༻♥༺━━━━━━





सुबह का वक्त था।
नाश्ता वगैरह करने के बाद मैं अपना एक थैला ले कर हवेली से बाहर जाने के लिए निकला तो बैठक से पिता जी ने आवाज़ दे कर बुला लिया मुझे। मजबूरन मुझे बैठक कक्ष में जाना ही पड़ा। मेरे दिलो दिमाग़ में अभी भी अनुराधा का ही ख़याल था।

"बैठो, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।" पिता जी ने सामान्य भाव से कहा तो मैं एक नज़र किशोरी लाल पर डालने के बाद वहीं रखी एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।

"देखो बेटे।" पिता जी ने थोड़ा गंभीर हो कर बहुत ही प्रेम भाव से कहा____"हम जानते हैं कि इस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। सच कहें तो उस लड़की की इस तरह हुई मौत से हमें भी बहुत धक्का लगा है और मन दुखी है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वो लड़की तुम्हारे लिए बहुत मायने रखती थी और वो तुम्हारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनने वाली थी लेकिन नियति में शायद तुम दोनों का साथ बस इतना ही लिखा था। हम तुमसे ये नहीं कहेंगे कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि हम अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा तुम्हारे लिए संभव नहीं है। हमने अपने बांह के भाई और अपने बेटे को खोया तो उन दोनों को भुला देना हमारे लिए भी संभव नहीं रहा है। लेकिन बेटे, ये भी सच है कि हमें होनी और अनहोनी को क़बूल करना पड़ता है। हालातों से समझौता करना पड़ता है। ऐसा इस लिए क्योंकि हमें जीवन में आगे बढ़ना होता है। खुद से ज़्यादा अपनों की खुशी के लिए, अपनों की बेहतरी के लिए। ये आसान तो नहीं होता लेकिन फिर भी मन मार कर ऐसा करना ही पड़ता है। शायद इसी लिए जीवन जीना आसान नहीं होता।"

मैं ख़ामोशी से पिता जी की बातें सुन रहा था। उधर वो इतना सब बोल कर चुप हुए और मेरी तरफ ध्यान से देखने लगे। किशोरी लाल की नज़रें भी मुझ पर ही जमी हुईं थी।

"ख़ैर, हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे।" सहसा पिता जी ने गहरी सांस ले कर पुनः कहा____"लेकिन हां, हम ये उम्मीद ज़रूर करते हैं कि तुम हमारी इन बातों को समझोगे और हालातों को भी समझने का प्रयास करोगे। इतना तो तुम भी जानते हो कि इस परिवार में अब तुम ही हो जिसे सब कुछ सम्हालना है। तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना है। सबके बारे में अच्छा सोचना है और सबका भला करना है। जब कोई अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़ता है तो उसे सबसे ज़्यादा दूसरों के हितों की चिंता रहती है। उसे अपने सुखों का और अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है। जब तुम सच्चे दिल से ऐसा करोगे तभी लोग तुम्हें देवता की तरह पूजेंगे। ख़ैर ये तो बाद की बातें है लेकिन मौजूदा समय में फिलहाल तुम्हें अपनी इस मानसिक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करनी है।"

"जी मैं कोशिश करूंगा।" मैं धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह सका।

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"जैसा कि हमने कहा हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे इस लिए अगर तुम अपने उस नए मकान में ही कुछ समय तक रहना चाहते तो वहीं रहो, हमें कोई एतराज़ नहीं है।"

"हां मैं फिलहाल वहीं रहना चाहता हूं।" मैं पिता जी की बात से अंदर ही अंदर ये सोच कर खुश हो गया था कि अब मैं बिना किसी विघ्न बाधा के अपनी अनुराधा के पास ही रहूंगा।

"ठीक है।" पिता जी ने ध्यान से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तो अब जब तक तुम्हारा मन करे वहीं रहो। हम तुम्हारे लिए ज़रूरत का कुछ सामान शेरा के द्वारा भिजवा देंगे। एक बात और, वहां पर अगर तुम्हारे साथ कोई और भी रहना चाहे तो तुम उसे मना मत करना।"

"क...क्या मतलब??" मैं एकदम से चौंका।

"जब तुम वहां पहुंचोगे तो खुद ही समझ जाओगे।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा____"ख़ैर अब तुम जाओ। हमें भी एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है।"

मन में कई तरह की बातें सोचते हुए मैं बैठक कक्ष से बाहर आ गया। जल्दी ही मोटर साईकिल में बैठा मैं खुशी मन से अपनी अनुराधा के पास पहुंचने के लिए उड़ा चला जा रहा था। इस बात से बेख़बर कि वहां पर मुझे कोई और भी मिलने वाला है।

✮✮✮✮

"आपको क्या लगता है किशोरी लाल जी?" दादा ठाकुर ने वैभव के जाते ही किशोरी लाल की तरफ देखते हुए पूछा____"इससे कोई बेहतर नतीजा निकलेगा?"

"उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा____"यकीन तो है कि छोटे कुंवर पर जल्दी ही बेहतर असर दिखेगा। वैसे गौरी शंकर जी ने बहुत ही दुस्साहस भरा और हैरतअंगेज काम किया है। मेरा मतलब है कि छोटे कुंवर को इस हालत से बाहर निकालने के लिए उन्होंने अपनी भतीजी को इस तरह से काम पर लगा दिया।"

"इसे काम पर लगाना नहीं कहते किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"बल्कि किसी अपने के प्रति सच्चे दिल से चिंता करना कहते हैं। हम मानते हैं कि उसने बड़ा ही अविश्वसनीय क़दम उठाया है और लोगों के कुछ भी कहने की कोई परवाह नहीं की है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा उसने प्रेमवश ही किया है। हमें आश्चर्य ज़रूर हो रहा है लेकिन साथ ही हमें उनकी सोच और नेक नीयती पर गर्व का भी आभास हो रहा है। ख़ास कर उस लड़की के प्रति जिसने अपने हर कार्य से ये साबित किया है कि वो वास्तव में हमारे बेटे से किस हद तक प्रेम करती है।"

"सही कह रहे हैं आप।" किशोरी लाल ने कहा____"वो लड़की सच में बड़ी अद्भुत है। मुझे तो ये सोच के हैरानी होती है कि जिस परिवार के लोगों की मानसिकता कुछ समय पहले तक इतने निम्न स्तर की थी उस परिवार में ऐसी नेक दिल लड़की कैसे पैदा गई?"

"कमल का फूल हमेशा कीचड़ में ही जन्म लेता है किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अपने ऐसे वजूद से समस्त सृष्टि को एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। ख़ैर, अब तो ये देखना है कि वैभव अपने साथ उस लड़की को उस मकान में रहने देगा अथवा नहीं? और अगर रहने देगा तो वो लड़की किस तरीके से तथा कितना जल्दी हमारे बेटे की हालत में सुधार लाती है?"

"मैं तो ऊपर वाले से यही प्राथना करता हूं ठाकुर साहब कि जल्द से जल्द सब कुछ ठीक हो जाए।" किशोरी लाल ने कहा____"छोटे कुंवर का जल्द से जल्द बेहतर होना बहुत ज़रूरी है।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर चलिए हमें देर हो रही है।"

दादा ठाकुर कहने के साथ ही अपने सिंहासन से उठ गए तो किशोरी लाल भी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में वो दोनों जीप में बैठ गए। दादा ठाकुर के हुकुम पर स्टेयरिंग सम्हाले बैठे हीरा लाल नाम के ड्राइवर ने जीप को आगे बढ़ा दिया।

✮✮✮✮

कुछ ही समय में मकान की बहुत अच्छे से साफ सफाई हो गई। रूपचंद्र ने जा कर मकान के अंदर का अच्छे से मुआयना किया और फिर संतुष्ट हो कर अपनी बहन का थैला एक कमरे में रख दिया। कमरा पूरी तरह खाली था। मकान ज़रूर बन गया था लेकिन उसमें चारपाई अथवा पलंग वगैरह नहीं रखा गया था। मकान के बाहर वाले हाल में लकड़ी की एक दो कुर्सियां और टेबल ज़रूर थीं जो चौकीदारी करने वाले लोग उपयोग कर रहे थे। रूपचंद्र के मन में इसी से संबंधित कुछ विचार उभर रहे थे जिसके लिए वो कोई विचार कर रहा था।

बाहर आ कर रूपचंद्र आस पास का मुआयना करने लगा। मकान के बाहर चारो तरफ की ज़मीन काफी अच्छे से साफ कर दी गई थी। कुछ ही दूरी पर एक कुआं था जिसके चारो तरफ पत्थरों की पक्की जगत बनाई गई थी और साथ ही उसमें लोहे के दो सरिए दोनों तरफ लगे हुए थे जिनके ऊपरी सिरों पर छड़ लगा कर उसमें लकड़ी की एक गोल गड़ारी फंसी हुई दिख रही थी। उसी गड़ारी में रस्सी फंसा कर नीचे कुएं से बाल्टी द्वारा पानी ऊपर खींचा जाता था।

कुएं के चारो तरफ गोलाकार आकृति में पत्थर की बड़ी बड़ी पट्टियां लगा कर उसे पक्के मशाले से जोड़ कर ज़मीन से करीब घुटने तक ऊंची पट्टी बनाई गई थी। उस पट्टी में बैठ कर बड़े आराम से नहाया जा सकता था या फिर कपड़े वगैरा धोए जा सकते थे। ख़ास बात यह थी कि इस तरह का कुआं रुद्रपुर गांव में भी नहीं था जो आधुनिकता का जीवंत प्रमाण लग रहा था। वैभव ने कुएं की इस तरह की बनावट कहीं देखी थी इस लिए उसने मिस्त्री से वैसा ही पक्का कुआं बनाने का निर्देश दिया था। रूपचंद्र उस कुएं को बड़े ध्यान से देख रहा था। ज़ाहिर है ऐसा कुआं उसने पहली बार ही देखा था। मन ही मन उसने वैभव की सोच और उसके कार्य की प्रसंसा की और फिर वापस मकान के पास आ गया। सहसा उसकी नज़र कुछ ही दूरी पर चुपचाप खड़ी अपनी बहन रूपा पर पड़ी।

रूपा, अनुराधा की चिता के पास खड़ी थी। ये देख रूपचंद्र की धड़कनें एकाएक तेज़ हो गईं और साथ ही वो फिक्रमंद हो उठा। वो तेज़ी से अपनी बहन की तरफ बढ़ता चला गया।

"तू यहां क्या कर रही है रूपा?" रूपचंद्र जैसे ही उसके पास पहुंचा तो उसने अधीरता से पूछा। अपने भाई की आवाज़ सुन रूपा एकदम से चौंक पड़ी। उसने झटके से गर्दन घुमा कर रूपचंद्र की तरफ थोड़ा हैरानी से देखा।

"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने फिर पूछा____"तू यहां क्या कर रही है और....और तू यहां आई कैसे?"

"व...वो भैया।" रूपा ने धड़कते दिल से कहा____"मैं बस ऐसे ही चली आई थी यहां। अचानक ही इस तरफ मेरी नज़र पड़ गई थी। फिर जाने कैसे मैं इस तरफ खिंचती चली आई?"

"ख..खिंचती चली आई???" रूपचंद्र चौंका____"ये क्या कह रही है तू?"

"ये कितनी अभागन थी ना भैया?" रूपा ने सहसा संजीदा हो कर अनुराधा की चिता की तरफ देखते हुए कहा____"ना इस संसार के लोगों को इसकी खुशी अच्छी लगी और ना ही उस ऊपर वाले को। आख़िर उस कंजर का क्या बिगाड़ा था इस मासूम ने?"

कहने के साथ ही रूपा की आंखें छलक पड़ीं। दिलो दिमाग़ में एकाएक जाने कैसे कैसे ख़याल उभरने लगे थे उसके। रूपचंद्र को समझ न आया कि क्या कहे? उसे भी अपने अंदर एक अपराध बोझ सा महसूस हो रहा था। उसे याद आया कि उसने भी तो उस मासूम के साथ एक ऐसा काम किया था जो हद दर्जे का अपराध था। अपने अपराध का एहसास होते ही रूपचंद्र को बड़े जोरों से ग्लानि हुई। उसने आंखें बंद कर के अनुराधा से अपने किए गुनाह की माफ़ी मांगी।

"काश! इस मासूम की जगह मुझे मौत आ गई होती।" रूपा के जज़्बात जैसे उसके बस में नहीं थे, दुखी भाव से बोली____"काश! इस गुड़िया को मेरी उमर लग गई होती। हे ईश्वर! हे देवी मां! तुम इतनी निर्दई कैसे हो गई? क्यों एक निर्दोष का जीवन उससे छीन लिया तुमने? क्यों उसके प्रेम को पूर्ण नहीं होने दिया?"

"बस कर रूपा।" रूपचंद्र का हृदय कांप उठा, बोला____"ऐसी रूह को हिला देने वाली बातें मत कर।"

"आपको पता है भैया।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"जब ये जीवित थी तो मैंने इसके बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। मैंने सोच लिया था कि जब हम दोनों हवेली में बहू बन कर जाएंगी तो वहां मैं इसे अपनी सौतन नहीं मानूंगी बल्कि अपनी छोटी बहन मानूंगी। अपनी गुड़िया मान कर इसे हमेशा प्यार और स्नेह दिया करूंगी लेकिन.....लेकिन देखिए ना...देखिए ना ऐसा कुछ भी तो नहीं होने दिया भगवान ने। उसने मेरी छोटी बहन, मेरी गुड़िया को पहले ही मुझसे दूर कर दिया।"

रूपा एकाएक घुटनों के बल बैठ गई और फिर फूट फूट कर रो पड़ी। रूपचंद्र ने बहुत कोशिश की खुद को सम्हालने की मगर अपनी भावनाओं के ज्वार को सम्हाल न सका। आंखें अनायास ही छलक पड़ीं। उसने आगे बढ़ कर रूपा के कंधे पर हाथ रखा और उसे सांत्वना देने लगा। अभी वो उससे कुछ कहने ही वाला था कि तभी उसके कानों में मोटर साइकिल की आवाज़ पड़ी तो उसने पलट कर देखा।

वैभव अपनी मोटर साईकिल से इस तरफ ही चला आ रहा था। मोटर साइकिल की आवाज़ से रूपा का ध्यान भी उस तरफ गया। उसने फ़ौरन ही खुद को सम्हाल कर अपने आंसू पोछे और फिर उठ कर खड़ी हो गई। वैभव पर नज़र पड़ते ही उसकी धड़कनें एकाएक तेज़ तेज़ चलने लगीं थी। रूपचंद्र के इशारे पर वो मकान की तरफ चल पड़ी।

✮✮✮✮

मैं जैसे ही मकान के सामने आया तो सहसा मेरी नज़र रूपचंद्र और रूपा पर पड़ गई। उन दोनों को यहां देख मैं बड़ा हैरान हुआ। दोनों के यहां होने की मैंने बिल्कुल भी कल्पना नहीं की थी। मुझे समझ न आया कि वो दोनों सुबह के इस वक्त यहां क्या कर रहे हैं? बहरहाल, मैंने मोटर साईकिल को रोका और फिर उसका इंजन बंद कर के उससे नीचे उतर आया। रूपा अपने भाई के पीछे आ कर खड़ी हो गई थी। उसके चेहरे पर थोड़ा घबराहट के भाव थे।

"हम तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे वैभव।" मैं जैसे ही मोटर साईकिल से उतरा तो रूपचंद्र ने थोड़ा बेचैन भाव से कहा।

"किस लिए?" मैंने एक नज़र रूपा की तरफ देखने के बाद रूपचंद्र से पूछा____"क्या मुझसे कोई काम था तुम्हें?"

"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" रूपचंद्र ने जैसे खुद को सम्हालते हुए कहा____"वैसे दादा ठाकुर ने क्या तुम्हें कुछ नहीं बताया?"

"क्या मतलब?" मैं एकदम से चौंका____"मैं कुछ समझा नहीं। क्या उन्हें कुछ बताना चाहिए था मुझे?"

"हां वो दरअसल बात ये है कि गौरी शंकर काका ने उनसे तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।" रूपचंद्र ने सहसा नज़रें चुराते हुए कहा। उसके चेहरे पर बेचैनी उभर आई थी और साथ ही पसीना भी। कुछ अटकते हुए से बोला____"देखो तुम ग़लत मत समझना। वो बात ये है कि....।"

"खुल कर बताओ बात क्या है?" मैंने सहसा सख़्त भाव से पूछा____"और तुम दोनों यहां क्या कर रहे हो?"

"देखो वैभव बात जो भी है तुम्हारी भलाई के लिए ही है।" रूपचंद्र को मानो सही शब्द ही नहीं मिल रहे थे जिससे कि वो अपनी बात मेरे सामने बेहतर तरीके से बोल सके, झिझकते हुए बोला____"दादा ठाकुर भी यही चाहते हैं, इसी लिए हम दोनों यहां हैं लेकिन...।"

"लेकिन???"

"लेकिन ये कि मैं तो चला जाऊंगा यहां से।" उसने बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"मगर मेरी बहन यहीं रहेगी....तुम्हारे साथ।"

"क...क्या???" मैं एकदम से उछल ही पड़ा____"ये तुम क्या कह रहे हो? तुम्हें होश भी है कि तुम क्या बोल रहे हो?"

"मैं पूरी तरह होश में ही हूं वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार पूरी दृढ़ता से कहा____"रूपा का यहां तुम्हारे साथ ही रहना दादा ठाकुर की मर्ज़ी और अनुमति से ही हुआ है। हालाकि उन्होंने ये भी कहा है कि तुम पर किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है कि तुम उनकी अथवा हमारी ये बात मानो लेकिन....तुम्हें भी समझना होगा कि सबका तुम्हारे लिए चिंतित होना जायज़ है। हम सब जानते हैं कि इस हादसे के चलते तुम बहुत ज़्यादा व्यथित हो...हम लोग भी व्यथित हैं, लेकिन ये भी सच है वैभव कि हमें बड़े से बड़े दुख को भी भूलने की कोशिश करनी ही पड़ती है और फिर जीवन में आगे बढ़ना पड़ता है। अगर तुमने अपने चाहने वालों को खोया है तो हमने भी तो एक झटके में अपने इतने सारे अपनों को खोया है। हमें भी तो उनका दुख है लेकिन इसके बावजूद हम किसी तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।"

"ये सब तो ठीक है।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि इसके लिए यहां मेरे पास तुम्हारी बहन क्यों रहेगी?"

"मौजूदा समय में तुम प्रेम के चलते दुखी हो वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"और तुम्हारे इस दुख को प्रेम से ही दूर करने की कोशिश की जा सकती है। तुम भी जानते हो कि मेरी बहन तुमसे कितना प्रेम करती है। तुम्हारी ऐसी हालत देख कर वो भी बहुत दुखी है। वो तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकती इस लिए वो तुम्हारे साथ यहां रह कर तुम्हारा दुख साझा करेगी और अपने प्रेम से तुम्हारा मन बहलाने की कोशिश करेगी।"

रूपचंद्र की ये बातें सुन कर मेरे ज़हन में विस्फोट सा हुआ। मैंने हैरत से आंखें फाड़ कर रूपा की तरफ देखा। अपने भाई के पीछे खड़ी थी वो इस लिए जैसे ही मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने मुझसे नज़रें मिलाई। उसकी आंखों में याचना थी, दर्द था, समर्पण भाव था और अथाह प्रेम था।

"देखो रूपचंद्र।" फिर मैं उसके भाई से मुखातिब हुआ____"मुझे इस हालत से निकालने के लिए तुम्हें या किसी को भी कुछ करने की ज़रूरत नहीं है और ना ही यहां मेरे साथ तुम्हारी बहन को रहने की ज़रूरत है। इस समय मुझे सिर्फ अकेलापन चाहिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा।" रूपचंद्र ने मायूस सा हो कर कहा____"मैं अभी एक ज़रूरी काम से शहर जा रहा हूं। वापस आऊंगा तो रूपा को ले जाऊंगा यहां से। तब तक तो रूपा यहां रह सकती हैं न?"

मैंने अनमने भाव से हां में सिर हिलाया और फिर अपना थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चला गया। मेरे जाने के बाद रूपचंद्र ने पलट कर अपनी बहन की तरफ देखा। वो भी उतरा हुआ चेहरा लिए चुपचाप खड़ी थी।

"तू फ़िक्र मत कर।" फिर रूपचंद्र ने उससे कहा____"मैंने वैभव से जान बूझ कर शहर जाने की बात कही है और तुझे तब तक यहां रहने को बोला है। जब तक मैं यहां वापस नहीं आता तब तक तो तू यहीं रहेगी। अब ये तुझ पर है कि तू कैसे वैभव को इस बात के लिए राज़ी करती है कि वो तुझे यहां रहने दे। ख़ैर अब मैं जा रहा हूं। दोपहर के समय तुम दोनों के लिए घर से खाना ले कर आऊंगा। अगर उस समय तक तूने वैभव को राज़ी कर लिया तो ठीक वरना फिर तुझे मेरे साथ वापस घर चलना ही पड़ेगा।"

रूपा की मूक सहमति के बाद रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर अपनी जीप में बैठ कर चला गया। उसके जाने के बाद रूपा ने एक गहरी सांस ली और फिर पलट कर मकान के अंदर की तरफ देखने लगी। उसके मन में अब बस यही सवाल था कि आख़िर वो किस तरह से वैभव को राज़ी करे?




━━━━✮━━━━━━━━━━━✮━━━━
Nice update🙏
 

Pagal king

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सुबह का वक्त था।
नाश्ता वगैरह करने के बाद मैं अपना एक थैला ले कर हवेली से बाहर जाने के लिए निकला तो बैठक से पिता जी ने आवाज़ दे कर बुला लिया मुझे। मजबूरन मुझे बैठक कक्ष में जाना ही पड़ा। मेरे दिलो दिमाग़ में अभी भी अनुराधा का ही ख़याल था।

"बैठो, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।" पिता जी ने सामान्य भाव से कहा तो मैं एक नज़र किशोरी लाल पर डालने के बाद वहीं रखी एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।

"देखो बेटे।" पिता जी ने थोड़ा गंभीर हो कर बहुत ही प्रेम भाव से कहा____"हम जानते हैं कि इस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। सच कहें तो उस लड़की की इस तरह हुई मौत से हमें भी बहुत धक्का लगा है और मन दुखी है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वो लड़की तुम्हारे लिए बहुत मायने रखती थी और वो तुम्हारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनने वाली थी लेकिन नियति में शायद तुम दोनों का साथ बस इतना ही लिखा था। हम तुमसे ये नहीं कहेंगे कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि हम अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा तुम्हारे लिए संभव नहीं है। हमने अपने बांह के भाई और अपने बेटे को खोया तो उन दोनों को भुला देना हमारे लिए भी संभव नहीं रहा है। लेकिन बेटे, ये भी सच है कि हमें होनी और अनहोनी को क़बूल करना पड़ता है। हालातों से समझौता करना पड़ता है। ऐसा इस लिए क्योंकि हमें जीवन में आगे बढ़ना होता है। खुद से ज़्यादा अपनों की खुशी के लिए, अपनों की बेहतरी के लिए। ये आसान तो नहीं होता लेकिन फिर भी मन मार कर ऐसा करना ही पड़ता है। शायद इसी लिए जीवन जीना आसान नहीं होता।"

मैं ख़ामोशी से पिता जी की बातें सुन रहा था। उधर वो इतना सब बोल कर चुप हुए और मेरी तरफ ध्यान से देखने लगे। किशोरी लाल की नज़रें भी मुझ पर ही जमी हुईं थी।

"ख़ैर, हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे।" सहसा पिता जी ने गहरी सांस ले कर पुनः कहा____"लेकिन हां, हम ये उम्मीद ज़रूर करते हैं कि तुम हमारी इन बातों को समझोगे और हालातों को भी समझने का प्रयास करोगे। इतना तो तुम भी जानते हो कि इस परिवार में अब तुम ही हो जिसे सब कुछ सम्हालना है। तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना है। सबके बारे में अच्छा सोचना है और सबका भला करना है। जब कोई अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़ता है तो उसे सबसे ज़्यादा दूसरों के हितों की चिंता रहती है। उसे अपने सुखों का और अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है। जब तुम सच्चे दिल से ऐसा करोगे तभी लोग तुम्हें देवता की तरह पूजेंगे। ख़ैर ये तो बाद की बातें है लेकिन मौजूदा समय में फिलहाल तुम्हें अपनी इस मानसिक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करनी है।"

"जी मैं कोशिश करूंगा।" मैं धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह सका।

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"जैसा कि हमने कहा हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे इस लिए अगर तुम अपने उस नए मकान में ही कुछ समय तक रहना चाहते तो वहीं रहो, हमें कोई एतराज़ नहीं है।"

"हां मैं फिलहाल वहीं रहना चाहता हूं।" मैं पिता जी की बात से अंदर ही अंदर ये सोच कर खुश हो गया था कि अब मैं बिना किसी विघ्न बाधा के अपनी अनुराधा के पास ही रहूंगा।

"ठीक है।" पिता जी ने ध्यान से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तो अब जब तक तुम्हारा मन करे वहीं रहो। हम तुम्हारे लिए ज़रूरत का कुछ सामान शेरा के द्वारा भिजवा देंगे। एक बात और, वहां पर अगर तुम्हारे साथ कोई और भी रहना चाहे तो तुम उसे मना मत करना।"

"क...क्या मतलब??" मैं एकदम से चौंका।

"जब तुम वहां पहुंचोगे तो खुद ही समझ जाओगे।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा____"ख़ैर अब तुम जाओ। हमें भी एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है।"

मन में कई तरह की बातें सोचते हुए मैं बैठक कक्ष से बाहर आ गया। जल्दी ही मोटर साईकिल में बैठा मैं खुशी मन से अपनी अनुराधा के पास पहुंचने के लिए उड़ा चला जा रहा था। इस बात से बेख़बर कि वहां पर मुझे कोई और भी मिलने वाला है।

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"आपको क्या लगता है किशोरी लाल जी?" दादा ठाकुर ने वैभव के जाते ही किशोरी लाल की तरफ देखते हुए पूछा____"इससे कोई बेहतर नतीजा निकलेगा?"

"उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा____"यकीन तो है कि छोटे कुंवर पर जल्दी ही बेहतर असर दिखेगा। वैसे गौरी शंकर जी ने बहुत ही दुस्साहस भरा और हैरतअंगेज काम किया है। मेरा मतलब है कि छोटे कुंवर को इस हालत से बाहर निकालने के लिए उन्होंने अपनी भतीजी को इस तरह से काम पर लगा दिया।"

"इसे काम पर लगाना नहीं कहते किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"बल्कि किसी अपने के प्रति सच्चे दिल से चिंता करना कहते हैं। हम मानते हैं कि उसने बड़ा ही अविश्वसनीय क़दम उठाया है और लोगों के कुछ भी कहने की कोई परवाह नहीं की है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा उसने प्रेमवश ही किया है। हमें आश्चर्य ज़रूर हो रहा है लेकिन साथ ही हमें उनकी सोच और नेक नीयती पर गर्व का भी आभास हो रहा है। ख़ास कर उस लड़की के प्रति जिसने अपने हर कार्य से ये साबित किया है कि वो वास्तव में हमारे बेटे से किस हद तक प्रेम करती है।"

"सही कह रहे हैं आप।" किशोरी लाल ने कहा____"वो लड़की सच में बड़ी अद्भुत है। मुझे तो ये सोच के हैरानी होती है कि जिस परिवार के लोगों की मानसिकता कुछ समय पहले तक इतने निम्न स्तर की थी उस परिवार में ऐसी नेक दिल लड़की कैसे पैदा गई?"

"कमल का फूल हमेशा कीचड़ में ही जन्म लेता है किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अपने ऐसे वजूद से समस्त सृष्टि को एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। ख़ैर, अब तो ये देखना है कि वैभव अपने साथ उस लड़की को उस मकान में रहने देगा अथवा नहीं? और अगर रहने देगा तो वो लड़की किस तरीके से तथा कितना जल्दी हमारे बेटे की हालत में सुधार लाती है?"

"मैं तो ऊपर वाले से यही प्राथना करता हूं ठाकुर साहब कि जल्द से जल्द सब कुछ ठीक हो जाए।" किशोरी लाल ने कहा____"छोटे कुंवर का जल्द से जल्द बेहतर होना बहुत ज़रूरी है।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर चलिए हमें देर हो रही है।"

दादा ठाकुर कहने के साथ ही अपने सिंहासन से उठ गए तो किशोरी लाल भी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में वो दोनों जीप में बैठ गए। दादा ठाकुर के हुकुम पर स्टेयरिंग सम्हाले बैठे हीरा लाल नाम के ड्राइवर ने जीप को आगे बढ़ा दिया।

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कुछ ही समय में मकान की बहुत अच्छे से साफ सफाई हो गई। रूपचंद्र ने जा कर मकान के अंदर का अच्छे से मुआयना किया और फिर संतुष्ट हो कर अपनी बहन का थैला एक कमरे में रख दिया। कमरा पूरी तरह खाली था। मकान ज़रूर बन गया था लेकिन उसमें चारपाई अथवा पलंग वगैरह नहीं रखा गया था। मकान के बाहर वाले हाल में लकड़ी की एक दो कुर्सियां और टेबल ज़रूर थीं जो चौकीदारी करने वाले लोग उपयोग कर रहे थे। रूपचंद्र के मन में इसी से संबंधित कुछ विचार उभर रहे थे जिसके लिए वो कोई विचार कर रहा था।

बाहर आ कर रूपचंद्र आस पास का मुआयना करने लगा। मकान के बाहर चारो तरफ की ज़मीन काफी अच्छे से साफ कर दी गई थी। कुछ ही दूरी पर एक कुआं था जिसके चारो तरफ पत्थरों की पक्की जगत बनाई गई थी और साथ ही उसमें लोहे के दो सरिए दोनों तरफ लगे हुए थे जिनके ऊपरी सिरों पर छड़ लगा कर उसमें लकड़ी की एक गोल गड़ारी फंसी हुई दिख रही थी। उसी गड़ारी में रस्सी फंसा कर नीचे कुएं से बाल्टी द्वारा पानी ऊपर खींचा जाता था।

कुएं के चारो तरफ गोलाकार आकृति में पत्थर की बड़ी बड़ी पट्टियां लगा कर उसे पक्के मशाले से जोड़ कर ज़मीन से करीब घुटने तक ऊंची पट्टी बनाई गई थी। उस पट्टी में बैठ कर बड़े आराम से नहाया जा सकता था या फिर कपड़े वगैरा धोए जा सकते थे। ख़ास बात यह थी कि इस तरह का कुआं रुद्रपुर गांव में भी नहीं था जो आधुनिकता का जीवंत प्रमाण लग रहा था। वैभव ने कुएं की इस तरह की बनावट कहीं देखी थी इस लिए उसने मिस्त्री से वैसा ही पक्का कुआं बनाने का निर्देश दिया था। रूपचंद्र उस कुएं को बड़े ध्यान से देख रहा था। ज़ाहिर है ऐसा कुआं उसने पहली बार ही देखा था। मन ही मन उसने वैभव की सोच और उसके कार्य की प्रसंसा की और फिर वापस मकान के पास आ गया। सहसा उसकी नज़र कुछ ही दूरी पर चुपचाप खड़ी अपनी बहन रूपा पर पड़ी।

रूपा, अनुराधा की चिता के पास खड़ी थी। ये देख रूपचंद्र की धड़कनें एकाएक तेज़ हो गईं और साथ ही वो फिक्रमंद हो उठा। वो तेज़ी से अपनी बहन की तरफ बढ़ता चला गया।

"तू यहां क्या कर रही है रूपा?" रूपचंद्र जैसे ही उसके पास पहुंचा तो उसने अधीरता से पूछा। अपने भाई की आवाज़ सुन रूपा एकदम से चौंक पड़ी। उसने झटके से गर्दन घुमा कर रूपचंद्र की तरफ थोड़ा हैरानी से देखा।

"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने फिर पूछा____"तू यहां क्या कर रही है और....और तू यहां आई कैसे?"

"व...वो भैया।" रूपा ने धड़कते दिल से कहा____"मैं बस ऐसे ही चली आई थी यहां। अचानक ही इस तरफ मेरी नज़र पड़ गई थी। फिर जाने कैसे मैं इस तरफ खिंचती चली आई?"

"ख..खिंचती चली आई???" रूपचंद्र चौंका____"ये क्या कह रही है तू?"

"ये कितनी अभागन थी ना भैया?" रूपा ने सहसा संजीदा हो कर अनुराधा की चिता की तरफ देखते हुए कहा____"ना इस संसार के लोगों को इसकी खुशी अच्छी लगी और ना ही उस ऊपर वाले को। आख़िर उस कंजर का क्या बिगाड़ा था इस मासूम ने?"

कहने के साथ ही रूपा की आंखें छलक पड़ीं। दिलो दिमाग़ में एकाएक जाने कैसे कैसे ख़याल उभरने लगे थे उसके। रूपचंद्र को समझ न आया कि क्या कहे? उसे भी अपने अंदर एक अपराध बोझ सा महसूस हो रहा था। उसे याद आया कि उसने भी तो उस मासूम के साथ एक ऐसा काम किया था जो हद दर्जे का अपराध था। अपने अपराध का एहसास होते ही रूपचंद्र को बड़े जोरों से ग्लानि हुई। उसने आंखें बंद कर के अनुराधा से अपने किए गुनाह की माफ़ी मांगी।

"काश! इस मासूम की जगह मुझे मौत आ गई होती।" रूपा के जज़्बात जैसे उसके बस में नहीं थे, दुखी भाव से बोली____"काश! इस गुड़िया को मेरी उमर लग गई होती। हे ईश्वर! हे देवी मां! तुम इतनी निर्दई कैसे हो गई? क्यों एक निर्दोष का जीवन उससे छीन लिया तुमने? क्यों उसके प्रेम को पूर्ण नहीं होने दिया?"

"बस कर रूपा।" रूपचंद्र का हृदय कांप उठा, बोला____"ऐसी रूह को हिला देने वाली बातें मत कर।"

"आपको पता है भैया।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"जब ये जीवित थी तो मैंने इसके बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। मैंने सोच लिया था कि जब हम दोनों हवेली में बहू बन कर जाएंगी तो वहां मैं इसे अपनी सौतन नहीं मानूंगी बल्कि अपनी छोटी बहन मानूंगी। अपनी गुड़िया मान कर इसे हमेशा प्यार और स्नेह दिया करूंगी लेकिन.....लेकिन देखिए ना...देखिए ना ऐसा कुछ भी तो नहीं होने दिया भगवान ने। उसने मेरी छोटी बहन, मेरी गुड़िया को पहले ही मुझसे दूर कर दिया।"

रूपा एकाएक घुटनों के बल बैठ गई और फिर फूट फूट कर रो पड़ी। रूपचंद्र ने बहुत कोशिश की खुद को सम्हालने की मगर अपनी भावनाओं के ज्वार को सम्हाल न सका। आंखें अनायास ही छलक पड़ीं। उसने आगे बढ़ कर रूपा के कंधे पर हाथ रखा और उसे सांत्वना देने लगा। अभी वो उससे कुछ कहने ही वाला था कि तभी उसके कानों में मोटर साइकिल की आवाज़ पड़ी तो उसने पलट कर देखा।

वैभव अपनी मोटर साईकिल से इस तरफ ही चला आ रहा था। मोटर साइकिल की आवाज़ से रूपा का ध्यान भी उस तरफ गया। उसने फ़ौरन ही खुद को सम्हाल कर अपने आंसू पोछे और फिर उठ कर खड़ी हो गई। वैभव पर नज़र पड़ते ही उसकी धड़कनें एकाएक तेज़ तेज़ चलने लगीं थी। रूपचंद्र के इशारे पर वो मकान की तरफ चल पड़ी।

✮✮✮✮

मैं जैसे ही मकान के सामने आया तो सहसा मेरी नज़र रूपचंद्र और रूपा पर पड़ गई। उन दोनों को यहां देख मैं बड़ा हैरान हुआ। दोनों के यहां होने की मैंने बिल्कुल भी कल्पना नहीं की थी। मुझे समझ न आया कि वो दोनों सुबह के इस वक्त यहां क्या कर रहे हैं? बहरहाल, मैंने मोटर साईकिल को रोका और फिर उसका इंजन बंद कर के उससे नीचे उतर आया। रूपा अपने भाई के पीछे आ कर खड़ी हो गई थी। उसके चेहरे पर थोड़ा घबराहट के भाव थे।

"हम तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे वैभव।" मैं जैसे ही मोटर साईकिल से उतरा तो रूपचंद्र ने थोड़ा बेचैन भाव से कहा।

"किस लिए?" मैंने एक नज़र रूपा की तरफ देखने के बाद रूपचंद्र से पूछा____"क्या मुझसे कोई काम था तुम्हें?"

"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" रूपचंद्र ने जैसे खुद को सम्हालते हुए कहा____"वैसे दादा ठाकुर ने क्या तुम्हें कुछ नहीं बताया?"

"क्या मतलब?" मैं एकदम से चौंका____"मैं कुछ समझा नहीं। क्या उन्हें कुछ बताना चाहिए था मुझे?"

"हां वो दरअसल बात ये है कि गौरी शंकर काका ने उनसे तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।" रूपचंद्र ने सहसा नज़रें चुराते हुए कहा। उसके चेहरे पर बेचैनी उभर आई थी और साथ ही पसीना भी। कुछ अटकते हुए से बोला____"देखो तुम ग़लत मत समझना। वो बात ये है कि....।"

"खुल कर बताओ बात क्या है?" मैंने सहसा सख़्त भाव से पूछा____"और तुम दोनों यहां क्या कर रहे हो?"

"देखो वैभव बात जो भी है तुम्हारी भलाई के लिए ही है।" रूपचंद्र को मानो सही शब्द ही नहीं मिल रहे थे जिससे कि वो अपनी बात मेरे सामने बेहतर तरीके से बोल सके, झिझकते हुए बोला____"दादा ठाकुर भी यही चाहते हैं, इसी लिए हम दोनों यहां हैं लेकिन...।"

"लेकिन???"

"लेकिन ये कि मैं तो चला जाऊंगा यहां से।" उसने बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"मगर मेरी बहन यहीं रहेगी....तुम्हारे साथ।"

"क...क्या???" मैं एकदम से उछल ही पड़ा____"ये तुम क्या कह रहे हो? तुम्हें होश भी है कि तुम क्या बोल रहे हो?"

"मैं पूरी तरह होश में ही हूं वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार पूरी दृढ़ता से कहा____"रूपा का यहां तुम्हारे साथ ही रहना दादा ठाकुर की मर्ज़ी और अनुमति से ही हुआ है। हालाकि उन्होंने ये भी कहा है कि तुम पर किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है कि तुम उनकी अथवा हमारी ये बात मानो लेकिन....तुम्हें भी समझना होगा कि सबका तुम्हारे लिए चिंतित होना जायज़ है। हम सब जानते हैं कि इस हादसे के चलते तुम बहुत ज़्यादा व्यथित हो...हम लोग भी व्यथित हैं, लेकिन ये भी सच है वैभव कि हमें बड़े से बड़े दुख को भी भूलने की कोशिश करनी ही पड़ती है और फिर जीवन में आगे बढ़ना पड़ता है। अगर तुमने अपने चाहने वालों को खोया है तो हमने भी तो एक झटके में अपने इतने सारे अपनों को खोया है। हमें भी तो उनका दुख है लेकिन इसके बावजूद हम किसी तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।"

"ये सब तो ठीक है।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि इसके लिए यहां मेरे पास तुम्हारी बहन क्यों रहेगी?"

"मौजूदा समय में तुम प्रेम के चलते दुखी हो वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"और तुम्हारे इस दुख को प्रेम से ही दूर करने की कोशिश की जा सकती है। तुम भी जानते हो कि मेरी बहन तुमसे कितना प्रेम करती है। तुम्हारी ऐसी हालत देख कर वो भी बहुत दुखी है। वो तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकती इस लिए वो तुम्हारे साथ यहां रह कर तुम्हारा दुख साझा करेगी और अपने प्रेम से तुम्हारा मन बहलाने की कोशिश करेगी।"

रूपचंद्र की ये बातें सुन कर मेरे ज़हन में विस्फोट सा हुआ। मैंने हैरत से आंखें फाड़ कर रूपा की तरफ देखा। अपने भाई के पीछे खड़ी थी वो इस लिए जैसे ही मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने मुझसे नज़रें मिलाई। उसकी आंखों में याचना थी, दर्द था, समर्पण भाव था और अथाह प्रेम था।

"देखो रूपचंद्र।" फिर मैं उसके भाई से मुखातिब हुआ____"मुझे इस हालत से निकालने के लिए तुम्हें या किसी को भी कुछ करने की ज़रूरत नहीं है और ना ही यहां मेरे साथ तुम्हारी बहन को रहने की ज़रूरत है। इस समय मुझे सिर्फ अकेलापन चाहिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा।" रूपचंद्र ने मायूस सा हो कर कहा____"मैं अभी एक ज़रूरी काम से शहर जा रहा हूं। वापस आऊंगा तो रूपा को ले जाऊंगा यहां से। तब तक तो रूपा यहां रह सकती हैं न?"

मैंने अनमने भाव से हां में सिर हिलाया और फिर अपना थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चला गया। मेरे जाने के बाद रूपचंद्र ने पलट कर अपनी बहन की तरफ देखा। वो भी उतरा हुआ चेहरा लिए चुपचाप खड़ी थी।

"तू फ़िक्र मत कर।" फिर रूपचंद्र ने उससे कहा____"मैंने वैभव से जान बूझ कर शहर जाने की बात कही है और तुझे तब तक यहां रहने को बोला है। जब तक मैं यहां वापस नहीं आता तब तक तो तू यहीं रहेगी। अब ये तुझ पर है कि तू कैसे वैभव को इस बात के लिए राज़ी करती है कि वो तुझे यहां रहने दे। ख़ैर अब मैं जा रहा हूं। दोपहर के समय तुम दोनों के लिए घर से खाना ले कर आऊंगा। अगर उस समय तक तूने वैभव को राज़ी कर लिया तो ठीक वरना फिर तुझे मेरे साथ वापस घर चलना ही पड़ेगा।"

रूपा की मूक सहमति के बाद रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर अपनी जीप में बैठ कर चला गया। उसके जाने के बाद रूपा ने एक गहरी सांस ली और फिर पलट कर मकान के अंदर की तरफ देखने लगी। उसके मन में अब बस यही सवाल था कि आख़िर वो किस तरह से वैभव को राज़ी करे?




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Awesome 👍👍👍👍👍 bro hamesha tagada wala update milta hai
 

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सुबह का वक्त था।
नाश्ता वगैरह करने के बाद मैं अपना एक थैला ले कर हवेली से बाहर जाने के लिए निकला तो बैठक से पिता जी ने आवाज़ दे कर बुला लिया मुझे। मजबूरन मुझे बैठक कक्ष में जाना ही पड़ा। मेरे दिलो दिमाग़ में अभी भी अनुराधा का ही ख़याल था।

"बैठो, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।" पिता जी ने सामान्य भाव से कहा तो मैं एक नज़र किशोरी लाल पर डालने के बाद वहीं रखी एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।

"देखो बेटे।" पिता जी ने थोड़ा गंभीर हो कर बहुत ही प्रेम भाव से कहा____"हम जानते हैं कि इस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। सच कहें तो उस लड़की की इस तरह हुई मौत से हमें भी बहुत धक्का लगा है और मन दुखी है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वो लड़की तुम्हारे लिए बहुत मायने रखती थी और वो तुम्हारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनने वाली थी लेकिन नियति में शायद तुम दोनों का साथ बस इतना ही लिखा था। हम तुमसे ये नहीं कहेंगे कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि हम अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा तुम्हारे लिए संभव नहीं है। हमने अपने बांह के भाई और अपने बेटे को खोया तो उन दोनों को भुला देना हमारे लिए भी संभव नहीं रहा है। लेकिन बेटे, ये भी सच है कि हमें होनी और अनहोनी को क़बूल करना पड़ता है। हालातों से समझौता करना पड़ता है। ऐसा इस लिए क्योंकि हमें जीवन में आगे बढ़ना होता है। खुद से ज़्यादा अपनों की खुशी के लिए, अपनों की बेहतरी के लिए। ये आसान तो नहीं होता लेकिन फिर भी मन मार कर ऐसा करना ही पड़ता है। शायद इसी लिए जीवन जीना आसान नहीं होता।"

मैं ख़ामोशी से पिता जी की बातें सुन रहा था। उधर वो इतना सब बोल कर चुप हुए और मेरी तरफ ध्यान से देखने लगे। किशोरी लाल की नज़रें भी मुझ पर ही जमी हुईं थी।

"ख़ैर, हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे।" सहसा पिता जी ने गहरी सांस ले कर पुनः कहा____"लेकिन हां, हम ये उम्मीद ज़रूर करते हैं कि तुम हमारी इन बातों को समझोगे और हालातों को भी समझने का प्रयास करोगे। इतना तो तुम भी जानते हो कि इस परिवार में अब तुम ही हो जिसे सब कुछ सम्हालना है। तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना है। सबके बारे में अच्छा सोचना है और सबका भला करना है। जब कोई अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़ता है तो उसे सबसे ज़्यादा दूसरों के हितों की चिंता रहती है। उसे अपने सुखों का और अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है। जब तुम सच्चे दिल से ऐसा करोगे तभी लोग तुम्हें देवता की तरह पूजेंगे। ख़ैर ये तो बाद की बातें है लेकिन मौजूदा समय में फिलहाल तुम्हें अपनी इस मानसिक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करनी है।"

"जी मैं कोशिश करूंगा।" मैं धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह सका।

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"जैसा कि हमने कहा हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे इस लिए अगर तुम अपने उस नए मकान में ही कुछ समय तक रहना चाहते तो वहीं रहो, हमें कोई एतराज़ नहीं है।"

"हां मैं फिलहाल वहीं रहना चाहता हूं।" मैं पिता जी की बात से अंदर ही अंदर ये सोच कर खुश हो गया था कि अब मैं बिना किसी विघ्न बाधा के अपनी अनुराधा के पास ही रहूंगा।

"ठीक है।" पिता जी ने ध्यान से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तो अब जब तक तुम्हारा मन करे वहीं रहो। हम तुम्हारे लिए ज़रूरत का कुछ सामान शेरा के द्वारा भिजवा देंगे। एक बात और, वहां पर अगर तुम्हारे साथ कोई और भी रहना चाहे तो तुम उसे मना मत करना।"

"क...क्या मतलब??" मैं एकदम से चौंका।

"जब तुम वहां पहुंचोगे तो खुद ही समझ जाओगे।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा____"ख़ैर अब तुम जाओ। हमें भी एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है।"

मन में कई तरह की बातें सोचते हुए मैं बैठक कक्ष से बाहर आ गया। जल्दी ही मोटर साईकिल में बैठा मैं खुशी मन से अपनी अनुराधा के पास पहुंचने के लिए उड़ा चला जा रहा था। इस बात से बेख़बर कि वहां पर मुझे कोई और भी मिलने वाला है।

✮✮✮✮

"आपको क्या लगता है किशोरी लाल जी?" दादा ठाकुर ने वैभव के जाते ही किशोरी लाल की तरफ देखते हुए पूछा____"इससे कोई बेहतर नतीजा निकलेगा?"

"उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा____"यकीन तो है कि छोटे कुंवर पर जल्दी ही बेहतर असर दिखेगा। वैसे गौरी शंकर जी ने बहुत ही दुस्साहस भरा और हैरतअंगेज काम किया है। मेरा मतलब है कि छोटे कुंवर को इस हालत से बाहर निकालने के लिए उन्होंने अपनी भतीजी को इस तरह से काम पर लगा दिया।"

"इसे काम पर लगाना नहीं कहते किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"बल्कि किसी अपने के प्रति सच्चे दिल से चिंता करना कहते हैं। हम मानते हैं कि उसने बड़ा ही अविश्वसनीय क़दम उठाया है और लोगों के कुछ भी कहने की कोई परवाह नहीं की है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा उसने प्रेमवश ही किया है। हमें आश्चर्य ज़रूर हो रहा है लेकिन साथ ही हमें उनकी सोच और नेक नीयती पर गर्व का भी आभास हो रहा है। ख़ास कर उस लड़की के प्रति जिसने अपने हर कार्य से ये साबित किया है कि वो वास्तव में हमारे बेटे से किस हद तक प्रेम करती है।"

"सही कह रहे हैं आप।" किशोरी लाल ने कहा____"वो लड़की सच में बड़ी अद्भुत है। मुझे तो ये सोच के हैरानी होती है कि जिस परिवार के लोगों की मानसिकता कुछ समय पहले तक इतने निम्न स्तर की थी उस परिवार में ऐसी नेक दिल लड़की कैसे पैदा गई?"

"कमल का फूल हमेशा कीचड़ में ही जन्म लेता है किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अपने ऐसे वजूद से समस्त सृष्टि को एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। ख़ैर, अब तो ये देखना है कि वैभव अपने साथ उस लड़की को उस मकान में रहने देगा अथवा नहीं? और अगर रहने देगा तो वो लड़की किस तरीके से तथा कितना जल्दी हमारे बेटे की हालत में सुधार लाती है?"

"मैं तो ऊपर वाले से यही प्राथना करता हूं ठाकुर साहब कि जल्द से जल्द सब कुछ ठीक हो जाए।" किशोरी लाल ने कहा____"छोटे कुंवर का जल्द से जल्द बेहतर होना बहुत ज़रूरी है।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर चलिए हमें देर हो रही है।"

दादा ठाकुर कहने के साथ ही अपने सिंहासन से उठ गए तो किशोरी लाल भी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में वो दोनों जीप में बैठ गए। दादा ठाकुर के हुकुम पर स्टेयरिंग सम्हाले बैठे हीरा लाल नाम के ड्राइवर ने जीप को आगे बढ़ा दिया।

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कुछ ही समय में मकान की बहुत अच्छे से साफ सफाई हो गई। रूपचंद्र ने जा कर मकान के अंदर का अच्छे से मुआयना किया और फिर संतुष्ट हो कर अपनी बहन का थैला एक कमरे में रख दिया। कमरा पूरी तरह खाली था। मकान ज़रूर बन गया था लेकिन उसमें चारपाई अथवा पलंग वगैरह नहीं रखा गया था। मकान के बाहर वाले हाल में लकड़ी की एक दो कुर्सियां और टेबल ज़रूर थीं जो चौकीदारी करने वाले लोग उपयोग कर रहे थे। रूपचंद्र के मन में इसी से संबंधित कुछ विचार उभर रहे थे जिसके लिए वो कोई विचार कर रहा था।

बाहर आ कर रूपचंद्र आस पास का मुआयना करने लगा। मकान के बाहर चारो तरफ की ज़मीन काफी अच्छे से साफ कर दी गई थी। कुछ ही दूरी पर एक कुआं था जिसके चारो तरफ पत्थरों की पक्की जगत बनाई गई थी और साथ ही उसमें लोहे के दो सरिए दोनों तरफ लगे हुए थे जिनके ऊपरी सिरों पर छड़ लगा कर उसमें लकड़ी की एक गोल गड़ारी फंसी हुई दिख रही थी। उसी गड़ारी में रस्सी फंसा कर नीचे कुएं से बाल्टी द्वारा पानी ऊपर खींचा जाता था।

कुएं के चारो तरफ गोलाकार आकृति में पत्थर की बड़ी बड़ी पट्टियां लगा कर उसे पक्के मशाले से जोड़ कर ज़मीन से करीब घुटने तक ऊंची पट्टी बनाई गई थी। उस पट्टी में बैठ कर बड़े आराम से नहाया जा सकता था या फिर कपड़े वगैरा धोए जा सकते थे। ख़ास बात यह थी कि इस तरह का कुआं रुद्रपुर गांव में भी नहीं था जो आधुनिकता का जीवंत प्रमाण लग रहा था। वैभव ने कुएं की इस तरह की बनावट कहीं देखी थी इस लिए उसने मिस्त्री से वैसा ही पक्का कुआं बनाने का निर्देश दिया था। रूपचंद्र उस कुएं को बड़े ध्यान से देख रहा था। ज़ाहिर है ऐसा कुआं उसने पहली बार ही देखा था। मन ही मन उसने वैभव की सोच और उसके कार्य की प्रसंसा की और फिर वापस मकान के पास आ गया। सहसा उसकी नज़र कुछ ही दूरी पर चुपचाप खड़ी अपनी बहन रूपा पर पड़ी।

रूपा, अनुराधा की चिता के पास खड़ी थी। ये देख रूपचंद्र की धड़कनें एकाएक तेज़ हो गईं और साथ ही वो फिक्रमंद हो उठा। वो तेज़ी से अपनी बहन की तरफ बढ़ता चला गया।

"तू यहां क्या कर रही है रूपा?" रूपचंद्र जैसे ही उसके पास पहुंचा तो उसने अधीरता से पूछा। अपने भाई की आवाज़ सुन रूपा एकदम से चौंक पड़ी। उसने झटके से गर्दन घुमा कर रूपचंद्र की तरफ थोड़ा हैरानी से देखा।

"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने फिर पूछा____"तू यहां क्या कर रही है और....और तू यहां आई कैसे?"

"व...वो भैया।" रूपा ने धड़कते दिल से कहा____"मैं बस ऐसे ही चली आई थी यहां। अचानक ही इस तरफ मेरी नज़र पड़ गई थी। फिर जाने कैसे मैं इस तरफ खिंचती चली आई?"

"ख..खिंचती चली आई???" रूपचंद्र चौंका____"ये क्या कह रही है तू?"

"ये कितनी अभागन थी ना भैया?" रूपा ने सहसा संजीदा हो कर अनुराधा की चिता की तरफ देखते हुए कहा____"ना इस संसार के लोगों को इसकी खुशी अच्छी लगी और ना ही उस ऊपर वाले को। आख़िर उस कंजर का क्या बिगाड़ा था इस मासूम ने?"

कहने के साथ ही रूपा की आंखें छलक पड़ीं। दिलो दिमाग़ में एकाएक जाने कैसे कैसे ख़याल उभरने लगे थे उसके। रूपचंद्र को समझ न आया कि क्या कहे? उसे भी अपने अंदर एक अपराध बोझ सा महसूस हो रहा था। उसे याद आया कि उसने भी तो उस मासूम के साथ एक ऐसा काम किया था जो हद दर्जे का अपराध था। अपने अपराध का एहसास होते ही रूपचंद्र को बड़े जोरों से ग्लानि हुई। उसने आंखें बंद कर के अनुराधा से अपने किए गुनाह की माफ़ी मांगी।

"काश! इस मासूम की जगह मुझे मौत आ गई होती।" रूपा के जज़्बात जैसे उसके बस में नहीं थे, दुखी भाव से बोली____"काश! इस गुड़िया को मेरी उमर लग गई होती। हे ईश्वर! हे देवी मां! तुम इतनी निर्दई कैसे हो गई? क्यों एक निर्दोष का जीवन उससे छीन लिया तुमने? क्यों उसके प्रेम को पूर्ण नहीं होने दिया?"

"बस कर रूपा।" रूपचंद्र का हृदय कांप उठा, बोला____"ऐसी रूह को हिला देने वाली बातें मत कर।"

"आपको पता है भैया।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"जब ये जीवित थी तो मैंने इसके बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। मैंने सोच लिया था कि जब हम दोनों हवेली में बहू बन कर जाएंगी तो वहां मैं इसे अपनी सौतन नहीं मानूंगी बल्कि अपनी छोटी बहन मानूंगी। अपनी गुड़िया मान कर इसे हमेशा प्यार और स्नेह दिया करूंगी लेकिन.....लेकिन देखिए ना...देखिए ना ऐसा कुछ भी तो नहीं होने दिया भगवान ने। उसने मेरी छोटी बहन, मेरी गुड़िया को पहले ही मुझसे दूर कर दिया।"

रूपा एकाएक घुटनों के बल बैठ गई और फिर फूट फूट कर रो पड़ी। रूपचंद्र ने बहुत कोशिश की खुद को सम्हालने की मगर अपनी भावनाओं के ज्वार को सम्हाल न सका। आंखें अनायास ही छलक पड़ीं। उसने आगे बढ़ कर रूपा के कंधे पर हाथ रखा और उसे सांत्वना देने लगा। अभी वो उससे कुछ कहने ही वाला था कि तभी उसके कानों में मोटर साइकिल की आवाज़ पड़ी तो उसने पलट कर देखा।

वैभव अपनी मोटर साईकिल से इस तरफ ही चला आ रहा था। मोटर साइकिल की आवाज़ से रूपा का ध्यान भी उस तरफ गया। उसने फ़ौरन ही खुद को सम्हाल कर अपने आंसू पोछे और फिर उठ कर खड़ी हो गई। वैभव पर नज़र पड़ते ही उसकी धड़कनें एकाएक तेज़ तेज़ चलने लगीं थी। रूपचंद्र के इशारे पर वो मकान की तरफ चल पड़ी।

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मैं जैसे ही मकान के सामने आया तो सहसा मेरी नज़र रूपचंद्र और रूपा पर पड़ गई। उन दोनों को यहां देख मैं बड़ा हैरान हुआ। दोनों के यहां होने की मैंने बिल्कुल भी कल्पना नहीं की थी। मुझे समझ न आया कि वो दोनों सुबह के इस वक्त यहां क्या कर रहे हैं? बहरहाल, मैंने मोटर साईकिल को रोका और फिर उसका इंजन बंद कर के उससे नीचे उतर आया। रूपा अपने भाई के पीछे आ कर खड़ी हो गई थी। उसके चेहरे पर थोड़ा घबराहट के भाव थे।

"हम तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे वैभव।" मैं जैसे ही मोटर साईकिल से उतरा तो रूपचंद्र ने थोड़ा बेचैन भाव से कहा।

"किस लिए?" मैंने एक नज़र रूपा की तरफ देखने के बाद रूपचंद्र से पूछा____"क्या मुझसे कोई काम था तुम्हें?"

"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" रूपचंद्र ने जैसे खुद को सम्हालते हुए कहा____"वैसे दादा ठाकुर ने क्या तुम्हें कुछ नहीं बताया?"

"क्या मतलब?" मैं एकदम से चौंका____"मैं कुछ समझा नहीं। क्या उन्हें कुछ बताना चाहिए था मुझे?"

"हां वो दरअसल बात ये है कि गौरी शंकर काका ने उनसे तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।" रूपचंद्र ने सहसा नज़रें चुराते हुए कहा। उसके चेहरे पर बेचैनी उभर आई थी और साथ ही पसीना भी। कुछ अटकते हुए से बोला____"देखो तुम ग़लत मत समझना। वो बात ये है कि....।"

"खुल कर बताओ बात क्या है?" मैंने सहसा सख़्त भाव से पूछा____"और तुम दोनों यहां क्या कर रहे हो?"

"देखो वैभव बात जो भी है तुम्हारी भलाई के लिए ही है।" रूपचंद्र को मानो सही शब्द ही नहीं मिल रहे थे जिससे कि वो अपनी बात मेरे सामने बेहतर तरीके से बोल सके, झिझकते हुए बोला____"दादा ठाकुर भी यही चाहते हैं, इसी लिए हम दोनों यहां हैं लेकिन...।"

"लेकिन???"

"लेकिन ये कि मैं तो चला जाऊंगा यहां से।" उसने बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"मगर मेरी बहन यहीं रहेगी....तुम्हारे साथ।"

"क...क्या???" मैं एकदम से उछल ही पड़ा____"ये तुम क्या कह रहे हो? तुम्हें होश भी है कि तुम क्या बोल रहे हो?"

"मैं पूरी तरह होश में ही हूं वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार पूरी दृढ़ता से कहा____"रूपा का यहां तुम्हारे साथ ही रहना दादा ठाकुर की मर्ज़ी और अनुमति से ही हुआ है। हालाकि उन्होंने ये भी कहा है कि तुम पर किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है कि तुम उनकी अथवा हमारी ये बात मानो लेकिन....तुम्हें भी समझना होगा कि सबका तुम्हारे लिए चिंतित होना जायज़ है। हम सब जानते हैं कि इस हादसे के चलते तुम बहुत ज़्यादा व्यथित हो...हम लोग भी व्यथित हैं, लेकिन ये भी सच है वैभव कि हमें बड़े से बड़े दुख को भी भूलने की कोशिश करनी ही पड़ती है और फिर जीवन में आगे बढ़ना पड़ता है। अगर तुमने अपने चाहने वालों को खोया है तो हमने भी तो एक झटके में अपने इतने सारे अपनों को खोया है। हमें भी तो उनका दुख है लेकिन इसके बावजूद हम किसी तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।"

"ये सब तो ठीक है।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि इसके लिए यहां मेरे पास तुम्हारी बहन क्यों रहेगी?"

"मौजूदा समय में तुम प्रेम के चलते दुखी हो वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"और तुम्हारे इस दुख को प्रेम से ही दूर करने की कोशिश की जा सकती है। तुम भी जानते हो कि मेरी बहन तुमसे कितना प्रेम करती है। तुम्हारी ऐसी हालत देख कर वो भी बहुत दुखी है। वो तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकती इस लिए वो तुम्हारे साथ यहां रह कर तुम्हारा दुख साझा करेगी और अपने प्रेम से तुम्हारा मन बहलाने की कोशिश करेगी।"

रूपचंद्र की ये बातें सुन कर मेरे ज़हन में विस्फोट सा हुआ। मैंने हैरत से आंखें फाड़ कर रूपा की तरफ देखा। अपने भाई के पीछे खड़ी थी वो इस लिए जैसे ही मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने मुझसे नज़रें मिलाई। उसकी आंखों में याचना थी, दर्द था, समर्पण भाव था और अथाह प्रेम था।

"देखो रूपचंद्र।" फिर मैं उसके भाई से मुखातिब हुआ____"मुझे इस हालत से निकालने के लिए तुम्हें या किसी को भी कुछ करने की ज़रूरत नहीं है और ना ही यहां मेरे साथ तुम्हारी बहन को रहने की ज़रूरत है। इस समय मुझे सिर्फ अकेलापन चाहिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा।" रूपचंद्र ने मायूस सा हो कर कहा____"मैं अभी एक ज़रूरी काम से शहर जा रहा हूं। वापस आऊंगा तो रूपा को ले जाऊंगा यहां से। तब तक तो रूपा यहां रह सकती हैं न?"

मैंने अनमने भाव से हां में सिर हिलाया और फिर अपना थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चला गया। मेरे जाने के बाद रूपचंद्र ने पलट कर अपनी बहन की तरफ देखा। वो भी उतरा हुआ चेहरा लिए चुपचाप खड़ी थी।

"तू फ़िक्र मत कर।" फिर रूपचंद्र ने उससे कहा____"मैंने वैभव से जान बूझ कर शहर जाने की बात कही है और तुझे तब तक यहां रहने को बोला है। जब तक मैं यहां वापस नहीं आता तब तक तो तू यहीं रहेगी। अब ये तुझ पर है कि तू कैसे वैभव को इस बात के लिए राज़ी करती है कि वो तुझे यहां रहने दे। ख़ैर अब मैं जा रहा हूं। दोपहर के समय तुम दोनों के लिए घर से खाना ले कर आऊंगा। अगर उस समय तक तूने वैभव को राज़ी कर लिया तो ठीक वरना फिर तुझे मेरे साथ वापस घर चलना ही पड़ेगा।"

रूपा की मूक सहमति के बाद रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर अपनी जीप में बैठ कर चला गया। उसके जाने के बाद रूपा ने एक गहरी सांस ली और फिर पलट कर मकान के अंदर की तरफ देखने लगी। उसके मन में अब बस यही सवाल था कि आख़िर वो किस तरह से वैभव को राज़ी करे?




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Awesome 👍👍👍👍👍 bro hamesha tagada wala update milta hai
 

TheBlackBlood

शरीफ़ आदमी, मासूमियत की मूर्ति
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SANJU ( V. R. ) Riky007 avsji Suraj13796 Ajju Landwalia Death Kiñg Thakur bhai

Ye story main aap logo ki vajah se yahan par complete karna chahta hu...kyoki main jaanta hu ki aap log dil se chahte hain ki ye story complete ho. Mera aap logo se yahi kahna hai ki chaahe do line ka hi review dijiye lekin dijiye zarur......baaki mujhe kisi se koi fark nahi padta. Is forum par meri ye last story hai uske baad shayad hi main yaha kabhi aaunga. Is liye nahi chaahta ki is story ko aise hi chhod kar chala jaau. Bas itna hi kahunga...
 

R@ndom_guy

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अध्याय - 118
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सुबह का वक्त था।
नाश्ता वगैरह करने के बाद मैं अपना एक थैला ले कर हवेली से बाहर जाने के लिए निकला तो बैठक से पिता जी ने आवाज़ दे कर बुला लिया मुझे। मजबूरन मुझे बैठक कक्ष में जाना ही पड़ा। मेरे दिलो दिमाग़ में अभी भी अनुराधा का ही ख़याल था।

"बैठो, तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।" पिता जी ने सामान्य भाव से कहा तो मैं एक नज़र किशोरी लाल पर डालने के बाद वहीं रखी एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।

"देखो बेटे।" पिता जी ने थोड़ा गंभीर हो कर बहुत ही प्रेम भाव से कहा____"हम जानते हैं कि इस समय तुम्हारी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है। सच कहें तो उस लड़की की इस तरह हुई मौत से हमें भी बहुत धक्का लगा है और मन दुखी है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वो लड़की तुम्हारे लिए बहुत मायने रखती थी और वो तुम्हारे जीवन का एक अभिन्न अंग बनने वाली थी लेकिन नियति में शायद तुम दोनों का साथ बस इतना ही लिखा था। हम तुमसे ये नहीं कहेंगे कि तुम उसे भूल जाओ क्योंकि हम अच्छी तरह समझते हैं कि ऐसा तुम्हारे लिए संभव नहीं है। हमने अपने बांह के भाई और अपने बेटे को खोया तो उन दोनों को भुला देना हमारे लिए भी संभव नहीं रहा है। लेकिन बेटे, ये भी सच है कि हमें होनी और अनहोनी को क़बूल करना पड़ता है। हालातों से समझौता करना पड़ता है। ऐसा इस लिए क्योंकि हमें जीवन में आगे बढ़ना होता है। खुद से ज़्यादा अपनों की खुशी के लिए, अपनों की बेहतरी के लिए। ये आसान तो नहीं होता लेकिन फिर भी मन मार कर ऐसा करना ही पड़ता है। शायद इसी लिए जीवन जीना आसान नहीं होता।"

मैं ख़ामोशी से पिता जी की बातें सुन रहा था। उधर वो इतना सब बोल कर चुप हुए और मेरी तरफ ध्यान से देखने लगे। किशोरी लाल की नज़रें भी मुझ पर ही जमी हुईं थी।

"ख़ैर, हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे।" सहसा पिता जी ने गहरी सांस ले कर पुनः कहा____"लेकिन हां, हम ये उम्मीद ज़रूर करते हैं कि तुम हमारी इन बातों को समझोगे और हालातों को भी समझने का प्रयास करोगे। इतना तो तुम भी जानते हो कि इस परिवार में अब तुम ही हो जिसे सब कुछ सम्हालना है। तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना है। सबके बारे में अच्छा सोचना है और सबका भला करना है। जब कोई अच्छा इंसान बनने की राह पर चल पड़ता है तो उसे सबसे ज़्यादा दूसरों के हितों की चिंता रहती है। उसे अपने सुखों का और अपने हितों का त्याग भी करना पड़ता है। जब तुम सच्चे दिल से ऐसा करोगे तभी लोग तुम्हें देवता की तरह पूजेंगे। ख़ैर ये तो बाद की बातें है लेकिन मौजूदा समय में फिलहाल तुम्हें अपनी इस मानसिक स्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करनी है।"

"जी मैं कोशिश करूंगा।" मैं धीमी आवाज़ में बस इतना ही कह सका।

"बहुत बढ़िया।" पिता जी ने कहा____"जैसा कि हमने कहा हम तुम्हें किसी भी बात के लिए मजबूर नहीं करेंगे इस लिए अगर तुम अपने उस नए मकान में ही कुछ समय तक रहना चाहते तो वहीं रहो, हमें कोई एतराज़ नहीं है।"

"हां मैं फिलहाल वहीं रहना चाहता हूं।" मैं पिता जी की बात से अंदर ही अंदर ये सोच कर खुश हो गया था कि अब मैं बिना किसी विघ्न बाधा के अपनी अनुराधा के पास ही रहूंगा।

"ठीक है।" पिता जी ने ध्यान से मेरी तरफ देखते हुए कहा____"तो अब जब तक तुम्हारा मन करे वहीं रहो। हम तुम्हारे लिए ज़रूरत का कुछ सामान शेरा के द्वारा भिजवा देंगे। एक बात और, वहां पर अगर तुम्हारे साथ कोई और भी रहना चाहे तो तुम उसे मना मत करना।"

"क...क्या मतलब??" मैं एकदम से चौंका।

"जब तुम वहां पहुंचोगे तो खुद ही समझ जाओगे।" पिता जी ने अजीब भाव से कहा____"ख़ैर अब तुम जाओ। हमें भी एक ज़रूरी काम से कहीं जाना है।"

मन में कई तरह की बातें सोचते हुए मैं बैठक कक्ष से बाहर आ गया। जल्दी ही मोटर साईकिल में बैठा मैं खुशी मन से अपनी अनुराधा के पास पहुंचने के लिए उड़ा चला जा रहा था। इस बात से बेख़बर कि वहां पर मुझे कोई और भी मिलने वाला है।

✮✮✮✮

"आपको क्या लगता है किशोरी लाल जी?" दादा ठाकुर ने वैभव के जाते ही किशोरी लाल की तरफ देखते हुए पूछा____"इससे कोई बेहतर नतीजा निकलेगा?"

"उम्मीद पर ही दुनिया क़ायम है ठाकुर साहब।" किशोरी लाल ने कहा____"यकीन तो है कि छोटे कुंवर पर जल्दी ही बेहतर असर दिखेगा। वैसे गौरी शंकर जी ने बहुत ही दुस्साहस भरा और हैरतअंगेज काम किया है। मेरा मतलब है कि छोटे कुंवर को इस हालत से बाहर निकालने के लिए उन्होंने अपनी भतीजी को इस तरह से काम पर लगा दिया।"

"इसे काम पर लगाना नहीं कहते किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने गहरी सांस ली____"बल्कि किसी अपने के प्रति सच्चे दिल से चिंता करना कहते हैं। हम मानते हैं कि उसने बड़ा ही अविश्वसनीय क़दम उठाया है और लोगों के कुछ भी कहने की कोई परवाह नहीं की है लेकिन ये भी सच है कि ऐसा उसने प्रेमवश ही किया है। हमें आश्चर्य ज़रूर हो रहा है लेकिन साथ ही हमें उनकी सोच और नेक नीयती पर गर्व का भी आभास हो रहा है। ख़ास कर उस लड़की के प्रति जिसने अपने हर कार्य से ये साबित किया है कि वो वास्तव में हमारे बेटे से किस हद तक प्रेम करती है।"

"सही कह रहे हैं आप।" किशोरी लाल ने कहा____"वो लड़की सच में बड़ी अद्भुत है। मुझे तो ये सोच के हैरानी होती है कि जिस परिवार के लोगों की मानसिकता कुछ समय पहले तक इतने निम्न स्तर की थी उस परिवार में ऐसी नेक दिल लड़की कैसे पैदा गई?"

"कमल का फूल हमेशा कीचड़ में ही जन्म लेता है किशोरी लाल जी।" दादा ठाकुर ने कहा____"और अपने ऐसे वजूद से समस्त सृष्टि को एक उदाहरण प्रस्तुत करता है। ख़ैर, अब तो ये देखना है कि वैभव अपने साथ उस लड़की को उस मकान में रहने देगा अथवा नहीं? और अगर रहने देगा तो वो लड़की किस तरीके से तथा कितना जल्दी हमारे बेटे की हालत में सुधार लाती है?"

"मैं तो ऊपर वाले से यही प्राथना करता हूं ठाकुर साहब कि जल्द से जल्द सब कुछ ठीक हो जाए।" किशोरी लाल ने कहा____"छोटे कुंवर का जल्द से जल्द बेहतर होना बहुत ज़रूरी है।"

"सही कहा।" दादा ठाकुर ने कहा____"ख़ैर चलिए हमें देर हो रही है।"

दादा ठाकुर कहने के साथ ही अपने सिंहासन से उठ गए तो किशोरी लाल भी अपनी कुर्सी से उठ कर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में वो दोनों जीप में बैठ गए। दादा ठाकुर के हुकुम पर स्टेयरिंग सम्हाले बैठे हीरा लाल नाम के ड्राइवर ने जीप को आगे बढ़ा दिया।

✮✮✮✮

कुछ ही समय में मकान की बहुत अच्छे से साफ सफाई हो गई। रूपचंद्र ने जा कर मकान के अंदर का अच्छे से मुआयना किया और फिर संतुष्ट हो कर अपनी बहन का थैला एक कमरे में रख दिया। कमरा पूरी तरह खाली था। मकान ज़रूर बन गया था लेकिन उसमें चारपाई अथवा पलंग वगैरह नहीं रखा गया था। मकान के बाहर वाले हाल में लकड़ी की एक दो कुर्सियां और टेबल ज़रूर थीं जो चौकीदारी करने वाले लोग उपयोग कर रहे थे। रूपचंद्र के मन में इसी से संबंधित कुछ विचार उभर रहे थे जिसके लिए वो कोई विचार कर रहा था।

बाहर आ कर रूपचंद्र आस पास का मुआयना करने लगा। मकान के बाहर चारो तरफ की ज़मीन काफी अच्छे से साफ कर दी गई थी। कुछ ही दूरी पर एक कुआं था जिसके चारो तरफ पत्थरों की पक्की जगत बनाई गई थी और साथ ही उसमें लोहे के दो सरिए दोनों तरफ लगे हुए थे जिनके ऊपरी सिरों पर छड़ लगा कर उसमें लकड़ी की एक गोल गड़ारी फंसी हुई दिख रही थी। उसी गड़ारी में रस्सी फंसा कर नीचे कुएं से बाल्टी द्वारा पानी ऊपर खींचा जाता था।

कुएं के चारो तरफ गोलाकार आकृति में पत्थर की बड़ी बड़ी पट्टियां लगा कर उसे पक्के मशाले से जोड़ कर ज़मीन से करीब घुटने तक ऊंची पट्टी बनाई गई थी। उस पट्टी में बैठ कर बड़े आराम से नहाया जा सकता था या फिर कपड़े वगैरा धोए जा सकते थे। ख़ास बात यह थी कि इस तरह का कुआं रुद्रपुर गांव में भी नहीं था जो आधुनिकता का जीवंत प्रमाण लग रहा था। वैभव ने कुएं की इस तरह की बनावट कहीं देखी थी इस लिए उसने मिस्त्री से वैसा ही पक्का कुआं बनाने का निर्देश दिया था। रूपचंद्र उस कुएं को बड़े ध्यान से देख रहा था। ज़ाहिर है ऐसा कुआं उसने पहली बार ही देखा था। मन ही मन उसने वैभव की सोच और उसके कार्य की प्रसंसा की और फिर वापस मकान के पास आ गया। सहसा उसकी नज़र कुछ ही दूरी पर चुपचाप खड़ी अपनी बहन रूपा पर पड़ी।

रूपा, अनुराधा की चिता के पास खड़ी थी। ये देख रूपचंद्र की धड़कनें एकाएक तेज़ हो गईं और साथ ही वो फिक्रमंद हो उठा। वो तेज़ी से अपनी बहन की तरफ बढ़ता चला गया।

"तू यहां क्या कर रही है रूपा?" रूपचंद्र जैसे ही उसके पास पहुंचा तो उसने अधीरता से पूछा। अपने भाई की आवाज़ सुन रूपा एकदम से चौंक पड़ी। उसने झटके से गर्दन घुमा कर रूपचंद्र की तरफ थोड़ा हैरानी से देखा।

"क्या हुआ?" रूपचंद्र ने फिर पूछा____"तू यहां क्या कर रही है और....और तू यहां आई कैसे?"

"व...वो भैया।" रूपा ने धड़कते दिल से कहा____"मैं बस ऐसे ही चली आई थी यहां। अचानक ही इस तरफ मेरी नज़र पड़ गई थी। फिर जाने कैसे मैं इस तरफ खिंचती चली आई?"

"ख..खिंचती चली आई???" रूपचंद्र चौंका____"ये क्या कह रही है तू?"

"ये कितनी अभागन थी ना भैया?" रूपा ने सहसा संजीदा हो कर अनुराधा की चिता की तरफ देखते हुए कहा____"ना इस संसार के लोगों को इसकी खुशी अच्छी लगी और ना ही उस ऊपर वाले को। आख़िर उस कंजर का क्या बिगाड़ा था इस मासूम ने?"

कहने के साथ ही रूपा की आंखें छलक पड़ीं। दिलो दिमाग़ में एकाएक जाने कैसे कैसे ख़याल उभरने लगे थे उसके। रूपचंद्र को समझ न आया कि क्या कहे? उसे भी अपने अंदर एक अपराध बोझ सा महसूस हो रहा था। उसे याद आया कि उसने भी तो उस मासूम के साथ एक ऐसा काम किया था जो हद दर्जे का अपराध था। अपने अपराध का एहसास होते ही रूपचंद्र को बड़े जोरों से ग्लानि हुई। उसने आंखें बंद कर के अनुराधा से अपने किए गुनाह की माफ़ी मांगी।

"काश! इस मासूम की जगह मुझे मौत आ गई होती।" रूपा के जज़्बात जैसे उसके बस में नहीं थे, दुखी भाव से बोली____"काश! इस गुड़िया को मेरी उमर लग गई होती। हे ईश्वर! हे देवी मां! तुम इतनी निर्दई कैसे हो गई? क्यों एक निर्दोष का जीवन उससे छीन लिया तुमने? क्यों उसके प्रेम को पूर्ण नहीं होने दिया?"

"बस कर रूपा।" रूपचंद्र का हृदय कांप उठा, बोला____"ऐसी रूह को हिला देने वाली बातें मत कर।"

"आपको पता है भैया।" रूपा ने रुंधे गले से कहा____"जब ये जीवित थी तो मैंने इसके बारे में जाने क्या क्या सोच लिया था। मैंने सोच लिया था कि जब हम दोनों हवेली में बहू बन कर जाएंगी तो वहां मैं इसे अपनी सौतन नहीं मानूंगी बल्कि अपनी छोटी बहन मानूंगी। अपनी गुड़िया मान कर इसे हमेशा प्यार और स्नेह दिया करूंगी लेकिन.....लेकिन देखिए ना...देखिए ना ऐसा कुछ भी तो नहीं होने दिया भगवान ने। उसने मेरी छोटी बहन, मेरी गुड़िया को पहले ही मुझसे दूर कर दिया।"

रूपा एकाएक घुटनों के बल बैठ गई और फिर फूट फूट कर रो पड़ी। रूपचंद्र ने बहुत कोशिश की खुद को सम्हालने की मगर अपनी भावनाओं के ज्वार को सम्हाल न सका। आंखें अनायास ही छलक पड़ीं। उसने आगे बढ़ कर रूपा के कंधे पर हाथ रखा और उसे सांत्वना देने लगा। अभी वो उससे कुछ कहने ही वाला था कि तभी उसके कानों में मोटर साइकिल की आवाज़ पड़ी तो उसने पलट कर देखा।

वैभव अपनी मोटर साईकिल से इस तरफ ही चला आ रहा था। मोटर साइकिल की आवाज़ से रूपा का ध्यान भी उस तरफ गया। उसने फ़ौरन ही खुद को सम्हाल कर अपने आंसू पोछे और फिर उठ कर खड़ी हो गई। वैभव पर नज़र पड़ते ही उसकी धड़कनें एकाएक तेज़ तेज़ चलने लगीं थी। रूपचंद्र के इशारे पर वो मकान की तरफ चल पड़ी।

✮✮✮✮

मैं जैसे ही मकान के सामने आया तो सहसा मेरी नज़र रूपचंद्र और रूपा पर पड़ गई। उन दोनों को यहां देख मैं बड़ा हैरान हुआ। दोनों के यहां होने की मैंने बिल्कुल भी कल्पना नहीं की थी। मुझे समझ न आया कि वो दोनों सुबह के इस वक्त यहां क्या कर रहे हैं? बहरहाल, मैंने मोटर साईकिल को रोका और फिर उसका इंजन बंद कर के उससे नीचे उतर आया। रूपा अपने भाई के पीछे आ कर खड़ी हो गई थी। उसके चेहरे पर थोड़ा घबराहट के भाव थे।

"हम तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहे थे वैभव।" मैं जैसे ही मोटर साईकिल से उतरा तो रूपचंद्र ने थोड़ा बेचैन भाव से कहा।

"किस लिए?" मैंने एक नज़र रूपा की तरफ देखने के बाद रूपचंद्र से पूछा____"क्या मुझसे कोई काम था तुम्हें?"

"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है।" रूपचंद्र ने जैसे खुद को सम्हालते हुए कहा____"वैसे दादा ठाकुर ने क्या तुम्हें कुछ नहीं बताया?"

"क्या मतलब?" मैं एकदम से चौंका____"मैं कुछ समझा नहीं। क्या उन्हें कुछ बताना चाहिए था मुझे?"

"हां वो दरअसल बात ये है कि गौरी शंकर काका ने उनसे तुम्हारे बारे में चर्चा की थी।" रूपचंद्र ने सहसा नज़रें चुराते हुए कहा। उसके चेहरे पर बेचैनी उभर आई थी और साथ ही पसीना भी। कुछ अटकते हुए से बोला____"देखो तुम ग़लत मत समझना। वो बात ये है कि....।"

"खुल कर बताओ बात क्या है?" मैंने सहसा सख़्त भाव से पूछा____"और तुम दोनों यहां क्या कर रहे हो?"

"देखो वैभव बात जो भी है तुम्हारी भलाई के लिए ही है।" रूपचंद्र को मानो सही शब्द ही नहीं मिल रहे थे जिससे कि वो अपनी बात मेरे सामने बेहतर तरीके से बोल सके, झिझकते हुए बोला____"दादा ठाकुर भी यही चाहते हैं, इसी लिए हम दोनों यहां हैं लेकिन...।"

"लेकिन???"

"लेकिन ये कि मैं तो चला जाऊंगा यहां से।" उसने बड़ी हिम्मत जुटा कर कहा____"मगर मेरी बहन यहीं रहेगी....तुम्हारे साथ।"

"क...क्या???" मैं एकदम से उछल ही पड़ा____"ये तुम क्या कह रहे हो? तुम्हें होश भी है कि तुम क्या बोल रहे हो?"

"मैं पूरी तरह होश में ही हूं वैभव।" रूपचंद्र ने इस बार पूरी दृढ़ता से कहा____"रूपा का यहां तुम्हारे साथ ही रहना दादा ठाकुर की मर्ज़ी और अनुमति से ही हुआ है। हालाकि उन्होंने ये भी कहा है कि तुम पर किसी तरह की कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं है कि तुम उनकी अथवा हमारी ये बात मानो लेकिन....तुम्हें भी समझना होगा कि सबका तुम्हारे लिए चिंतित होना जायज़ है। हम सब जानते हैं कि इस हादसे के चलते तुम बहुत ज़्यादा व्यथित हो...हम लोग भी व्यथित हैं, लेकिन ये भी सच है वैभव कि हमें बड़े से बड़े दुख को भी भूलने की कोशिश करनी ही पड़ती है और फिर जीवन में आगे बढ़ना पड़ता है। अगर तुमने अपने चाहने वालों को खोया है तो हमने भी तो एक झटके में अपने इतने सारे अपनों को खोया है। हमें भी तो उनका दुख है लेकिन इसके बावजूद हम किसी तरह जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।"

"ये सब तो ठीक है।" मैंने संजीदा हो कर कहा____"लेकिन मेरी समझ में ये नहीं आ रहा कि इसके लिए यहां मेरे पास तुम्हारी बहन क्यों रहेगी?"

"मौजूदा समय में तुम प्रेम के चलते दुखी हो वैभव।" रूपचंद्र ने कहा____"और तुम्हारे इस दुख को प्रेम से ही दूर करने की कोशिश की जा सकती है। तुम भी जानते हो कि मेरी बहन तुमसे कितना प्रेम करती है। तुम्हारी ऐसी हालत देख कर वो भी बहुत दुखी है। वो तुम्हें इस हालत में नहीं देख सकती इस लिए वो तुम्हारे साथ यहां रह कर तुम्हारा दुख साझा करेगी और अपने प्रेम से तुम्हारा मन बहलाने की कोशिश करेगी।"

रूपचंद्र की ये बातें सुन कर मेरे ज़हन में विस्फोट सा हुआ। मैंने हैरत से आंखें फाड़ कर रूपा की तरफ देखा। अपने भाई के पीछे खड़ी थी वो इस लिए जैसे ही मैंने उसकी तरफ देखा तो उसने मुझसे नज़रें मिलाई। उसकी आंखों में याचना थी, दर्द था, समर्पण भाव था और अथाह प्रेम था।

"देखो रूपचंद्र।" फिर मैं उसके भाई से मुखातिब हुआ____"मुझे इस हालत से निकालने के लिए तुम्हें या किसी को भी कुछ करने की ज़रूरत नहीं है और ना ही यहां मेरे साथ तुम्हारी बहन को रहने की ज़रूरत है। इस समय मुझे सिर्फ अकेलापन चाहिए इससे ज़्यादा कुछ नहीं।"

"ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा।" रूपचंद्र ने मायूस सा हो कर कहा____"मैं अभी एक ज़रूरी काम से शहर जा रहा हूं। वापस आऊंगा तो रूपा को ले जाऊंगा यहां से। तब तक तो रूपा यहां रह सकती हैं न?"

मैंने अनमने भाव से हां में सिर हिलाया और फिर अपना थैला ले कर मकान के अंदर की तरफ चला गया। मेरे जाने के बाद रूपचंद्र ने पलट कर अपनी बहन की तरफ देखा। वो भी उतरा हुआ चेहरा लिए चुपचाप खड़ी थी।

"तू फ़िक्र मत कर।" फिर रूपचंद्र ने उससे कहा____"मैंने वैभव से जान बूझ कर शहर जाने की बात कही है और तुझे तब तक यहां रहने को बोला है। जब तक मैं यहां वापस नहीं आता तब तक तो तू यहीं रहेगी। अब ये तुझ पर है कि तू कैसे वैभव को इस बात के लिए राज़ी करती है कि वो तुझे यहां रहने दे। ख़ैर अब मैं जा रहा हूं। दोपहर के समय तुम दोनों के लिए घर से खाना ले कर आऊंगा। अगर उस समय तक तूने वैभव को राज़ी कर लिया तो ठीक वरना फिर तुझे मेरे साथ वापस घर चलना ही पड़ेगा।"

रूपा की मूक सहमति के बाद रूपचंद्र ने बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और फिर अपनी जीप में बैठ कर चला गया। उसके जाने के बाद रूपा ने एक गहरी सांस ली और फिर पलट कर मकान के अंदर की तरफ देखने लगी। उसके मन में अब बस यही सवाल था कि आख़िर वो किस तरह से वैभव को राज़ी करे?




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Rupa jaisa prem sach me devi ki bhakti se hi mil skta hai
Aur ye sabit karta hai ki devi ki bhakti or sachcha prem kabhi nishfal ni hota
 

R@ndom_guy

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SANJU ( V. R. ) Riky007 avsji Suraj13796 Ajju Landwalia Death Kiñg Thakur bhai

Ye story main aap logo ki vajah se yahan par complete karna chahta hu...kyoki main jaanta hu ki aap log dil se chahte hain ki ye story complete ho. Mera aap logo se yahi kahna hai ki chaahe do line ka hi review dijiye lekin dijiye zarur......baaki mujhe kisi se koi fark nahi padta. Is forum par meri ye last story hai uske baad shayad hi main yaha kabhi aaunga. Is liye nahi chaahta ki is story ko aise hi chhod kar chala jaau. Bas itna hi kahunga...
Kahe bhaiya fr kane nhi aaiyega
Aap itna ache se pure bhav aur atmiyata se likhte hain
Or stories likhiyega

Ye story mere favorites me se ek hai
 

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Awesome update, dada Thakur ko bhi kulguru ki bato ka arth samjh aagya aur Anuradha ki mout ke bad ragini aur vaibhav ki shadi ka vichar aa gya unke man me
Udhar rupa apne payar ko pane use thik karne pariksha me utar gayi hai dekhna hai aage kya rahta hai kya vaibhav use sath rhne ki ijajat dega
Aage pata chala jayega...
 
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