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Serious ना टॉपर, ना बिगड़े — बीच में अटके हम

Shivani guptaa

''We suffer more in imagination than in reality"
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Topper matlab IIT or Upsc nahi hota small brain Noo
Generally class main jo topper hote hai unke mind main yahi bat Dali jati ki upsc kro ya iit bas isliye laga
 

Frieren

𝙏𝙝𝙚 𝙨𝙡𝙖𝙮𝙚𝙧!
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ना टॉपर, ना बिगड़े — बीच में अटके हम
Disclaimer: ये पोस्ट किसी वर्ग या इंसान की आलोचना नहीं करती। ये उन लोगों के लिए है जो ना टॉपर बन पाए, ना बिगड़ सके—बस ज़िंदगी के बीच में कहीं अटके हैं।
हम वो थे, जो ना कभी किसी के लिए "उदाहरण" बने,
ना ही किसी के लिए "चेतावनी"।
क्लास में चुपचाप बैठने वाले,
ना फर्स्ट बेंच की चमक, ना लास्ट बेंच की बगावत।
बस बीच में थे—बेआवाज़, पर महसूस करते हुए।
हर किसी को देखकर खुद को समझने की कोशिश करते।
ना कोई हमें समझ पाया,
ना हम किसी से खुलकर कुछ कह पाए।
किताबें खोलते थे, पर ध्यान कहीं और उड़ जाता था।
ना दिल से पढ़ाई कर पाए,
ना इतने बगावती बने कि सब छोड़ दें।
अंदर एक हलचल थी, पर उस बेचैनी का कोई नाम नहीं था।
शायद हम खुद से ही उलझे थे,
या दुनिया की परिभाषाओं में कहीं फिट नहीं होते थे।
हमें समझने वाला कोई नहीं था—शायद हम खुद भी नहीं।
माता-पिता को लगता था कि हम बहुत कुछ कर सकते हैं,
पर हमने खुद पर कभी इतना भरोसा नहीं किया।
हर एग्जाम से पहले बड़ा सपना बनता,
पर नतीजा हमेशा अधूरा रह जाता।
ना हम सुबह 5 बजे उठकर पढ़ने वालों में थे,
ना शाम को बाहर घूमने वालों में।
हम उन कमरों में बंद थे, जहाँ सपने भी थे और डर भी।
जहाँ सन्नाटा था, पर दिमाग शोर करता था।
हम कभी "आदर्श बच्चे" की लिस्ट में नहीं आए,
जो माता-पिता के लिए गर्व का कारण बनते हैं।
ना ही "सिरदर्द" वाले बच्चे बने,
जिनके बारे में लोग कहते हैं, "इसका तो कुछ नहीं हो सकता।"
हम हमेशा कन्फ्यूज़्ड थे, और हमारी कहानी भी अधूरी थी।
लोगों ने हमें कभी सीरियसली नहीं लिया,
और हमने खुद को भी नहीं।
पर इस अधूरेपन में ही कुछ असली था।
हमने देखा कैसे टॉपर्स को सराहा गया,
और कैसे "बिगड़े" बच्चों की चर्चा हुई।
हमारा ज़िक्र तो किसी चाय की चुस्की में भी नहीं था।
हम ऑब्ज़र्वर बन गए—हर चीज़ को चुपचाप देखते हुए।
क्लासरूम में हर किसी के अपने ग्रुप्स थे,
पर हम हर ग्रुप में थोड़ा-थोड़ा थे, पूरा कहीं नहीं।
लंचबॉक्स कभी अकेले खुलता, कभी किसी के साथ,
पर खाने से ज़्यादा सन्नाटा खाते थे।
एक दिन में कई लोग बनते—कभी उम्मीद भरे, कभी हारे हुए।
लोगों ने हमारी खामोशी को ज़्यादा नोटिस किया।
हम भीड़ में खड़े थे, पर भीड़ का हिस्सा नहीं थे।
लगता था शायद हमारी कोई जगह ही नहीं।
कभी किताबें खोलकर सो गए,
तो कभी रजाई में सारी रात जागते रहे।
कभी लाइब्रेरी गए, सिर्फ़ वहाँ की शांति के लिए,
पर वहाँ भी डर लगता—"कहीं मैं पीछे तो नहीं छूट रहा?"
हमेशा यही सवाल: "मैं कहाँ जा रहा हूँ?"
जवाब कभी नहीं मिला, बस दिल कहता था—
"अकेला नहीं हूँ, ढूँढ रहा हूँ।"
हमें ना पूरी स्पष्टता थी, ना पूरी अराजकता में डूबे थे।
हम बीच में फँसे थे—स्पष्टता और कन्फ्यूज़न के बीच।
हम उन्हें सुनते थे जो चिल्लाकर बोलते,
और उन्हें भी जो खामोश रहकर बहुत कुछ कहते।
कभी-कभी लगता था कि हम "लेट ब्लूमर्स" हैं,
पर फिर डर लगता—कहीं ये खिलना कभी हो ही ना।
हम खुद की तलाश में थे,
पर हर दिन खुद से थोड़ा और खो जाते थे।
हमें समझ आया कि ज़िंदगी सिर्फ़ परफॉर्मेंस नहीं है।
यहाँ सरवाइवल भी एक कला है।
हमने वो सीखा जो ना किताबों में था,
ना मोटिवेशनल वीडियोज़ में।
हमने इंसानों को पढ़ा—उनकी नज़रों को, उनकी खामोशी को।
हमने हर चीज़ के पीछे की साइकोलॉजी समझी।
हमने सहानुभूति सीख ली,
जो शायद बहुत पढ़े-लिखे भी नहीं सीख पाते।
हम ऑब्ज़र्वर बने, और यहीं से हमारी असली यात्रा शुरू हुई।
जब कोई कहता, "तू अभी भी सीरियस क्यों नहीं हुआ?"
हम हँस देते, क्योंकि उन्हें क्या पता,
हमने तो ज़िंदगी को बहुत सीरियसली जिया है।
हम सिर्फ़ पढ़ाई में पीछे थे,
ज़िंदगी के इमोशन्स में तो बहुत आगे निकल चुके थे।
हमने रिजेक्शन, कन्फ्यूज़न, कम्पैरिज़न—सब महसूस किया।
यही हमारी परिपक्वता की नींव बनी,
जो ना बड़ों को दिखी, ना समाज को समझ आई।
हम वो हैं जिनके पास कहानियाँ हैं,
पर कभी लिखी नहीं गईं।
हमने वो सीखा जो मार्क्स नहीं दिखा सकते।
हमारे रिर्पोट कार्ड एवरेज थे,
पर हमारी सोच बहुत गहरी थी।
हमें भीड़ से डर नहीं लगता,
क्योंकि हम हमेशा खुद में अकेले थे।
जब कोई पूछता, "तेरा क्या चल रहा है?"
हम मुस्कुराकर कहते, "सब ठीक है..."
पर अंदर बहुत कुछ चल रहा होता था।
बीच का ये रास्ता सिखाता है—हर चीज़ को चुपचाप देखना।
ना बगावत करने का हक़, ना पूरी आज्ञाकारी की लग्ज़री।
गलतियाँ होती हैं, पर सजा भी नहीं मिलती—
क्योंकि किसी को पता ही नहीं चलता।
सही काम करते हैं, पर वाहवाही नहीं मिलती—
क्योंकि किसी को फर्क ही नहीं पड़ता।
धीरे-धीरे हम अंदर से ऑब्ज़र्वर बन गए।
हर लड़ाई, हर रिश्ता, हर बदलाव—बस चुपचाप नोटिस करते।
यही जगह हमें वो बना देती है जो हर चीज़ को गहराई से देख पाता है।
हम किसी का मज़ाक नहीं उड़ाते,
क्योंकि हमने खुद कुछ अधूरा जिया है।
यही अधूरापन हमारी सबसे बड़ी परिपक्वता बन गया।
ना किताबों से दोस्ती कर पाए,
ना गलियों में नाम कमा पाए।
रिर्पोट कार्ड पर एवरेज, ना आखिरी, ना टॉपर।
और यही एवरेज होना हमारा सबसे बड़ा टैग बन गया।
लोग पूछते हैं, "तू करता क्या है?"
और हमारे पास कोई ठोस जवाब नहीं होता।
क्योंकि हम हर चीज़ में थोड़ा-थोड़ा हैं, पर पूरा कुछ नहीं।
ये "थोड़ा-थोड़ा" करना कभी-कभी बहुत अकेला कर देता है।
हम चाहते हैं कोई हमारे बैलेंस को समझे,
पर दुनिया को सिर्फ़ अतिवाद पसंद हैं।
हम बीच में रहकर बस मुस्कुरा देते हैं।
कुछ लोग हमें बोरिंग कहते हैं,
क्योंकि हम हर डिस्कशन में सिर्फ़ सुनते हैं।
ना चिल्लाते हैं, ना हर वक़्त खुद को ज़ाहिर करते हैं।
पर सच ये है—हमारे अंदर हर चीज़ की गहराई है।
हम चिल्लाते नहीं, क्योंकि हमने महसूस करना सीखा है।
हम गलत नहीं, पर सही साबित करने की ज़रूरत भी नहीं समझते।
हर तर्क के दो पहलू दिखते हैं—और यही हमारी सजा भी है।
क्योंकि ये दुनिया स्पष्टता चाहती है, ग्रे नहीं।
हमारा ऑब्ज़र्व करना लोगों को कन्फ्यूज़ करता है।
वो हमें "कन्फ्यूज़्ड" समझ लेते हैं,
जबकि हम सबसे ज़्यादा जागरूक हैं—बस बोलते नहीं।
जो बहुत अच्छे बच्चे होते हैं, उन्हें घरवालों का दबाव झेलना पड़ता है।
जो बहुत बिगड़ जाते हैं, वो अपने नियम बना लेते हैं।
पर हमारे लिए ना कोई नियम बना, ना कोई तोड़ा गया।
इसलिए हमारी लड़ाई किसी को दिखी ही नहीं।
ना हमारी जीत का जश्न होता है,
ना हार का मातम।
हमारा दायरा इतना अदृश्य है कि लोग भूल जाते हैं—
हम भी महसूस करते हैं।
हमने हँसते हुए भी आँसुओं वाला दिल थामा है।
यही हमारा असली संघर्ष है—बिना पहचाने रह जाना।
पर इस अनदेखेपन में एक गहराई है,
जो किसी किताब में नहीं मिलती।
हमारे अंदर एक मज़बूत इंसान छिपा है,
जो कभी मान्यता के लिए नहीं रोया।
ना स्पॉटलाइट चाहिए, ना सहानुभूति की भीख।
डर भी लगता है, पर उसे ज़ाहिर नहीं करते।
हमारे आँसू भी "सॉर्टेड" हैं—जैसे रोने का भी कोई लॉजिक हो।
हम हर इंसान की कहानी समझ सकते हैं,
क्योंकि हमारी अपनी कहानी कई परतों वाली है।
हमने कभी खुलकर नहीं बोला, पर सबके इमोशन्स पढ़ लिए।
खुद की फीलिंग्स नहीं कह पाए,
पर दूसरों के डर को सुन लिया।
जो लोग बीच में रह जाते हैं, वो सहानुभूति सीख जाते हैं।
और यही सहानुभूति उनकी अदृश्य ताकत बन जाती है।
कुछ लोग सिर्फ़ नाम कमाने के लिए पढ़ते हैं,
कुछ सिर्फ़ काम पाने के लिए।
और हम जैसे लोग...
ना नाम के लायक बने, ना काम ही साफ हुआ।
बस हर फॉर्म भरते रहे, इस उम्मीद में कि एक दिन कुछ हो जाएगा।
हर साल सोचते—अगली बार पूरा डेडिकेशन दूँगा।
पर अगले साल भी वही गिल्ट।
ना सही स्ट्रैटेजी बन पाई, ना दिमाग स्थिर रहा।
आज भी किसी को फेस करने से पहले हज़ार बहाने तैयार रखने पड़ते हैं।
कभी-कभी खुद से ही शर्मिंदगी होती है,
जब कोई छोटा कज़िन पूछता है, "भैया, जॉब लगी?"
और हमें कहना पड़ता है, "बस मेहनत कर रहा हूँ।"
सफाई देना अब अजीब लगता है।
लोगों ने मान लिया कि हम "सीरियस" नहीं,
जबकि अंदर का गिल्ट इतना है कि रात को नींद नहीं आती।
ना हम भटकना चाहते थे, ना ठिकाना मिला।
ना किसी को दोष दे सकते, ना खुद को जस्टिफाई कर सकते।
बस एक अजीब सी खामोश यात्रा में फँसे हैं।
पर इतना पक्का है—
हम जैसे लोग अंदर से कमज़ोर नहीं।
बस अभी तक सही दिशा नहीं मिली।
हमने सब देखा है—
किसी की नौकरी लगी, किसी की शादी हुई,
कोई MBA कर गया, कोई इन्फ्लुएंसर बन गया।
और हमारे पास बस एक डायरी थी—
जिसमें हर साल के लक्ष्य थे, और हर साल का गिल्ट भी।
यही सब देखकर अंदर कुछ टूटता है, और कुछ जलता भी है।
शायद यही जलन एक दिन प्रेरणा बन जाए,
और हम उन लोगों में शामिल हो जाएँ,
जिन्हें देखकर कोई कहे—
"इसने भी ज़ीरो से शुरू किया था।"
अगर तुम भी बीच में अटके हो—
ना बहुत अच्छे, ना बहुत बुरे—
तो मैं बस इतना कहना चाहता हूँ:
तुम्हारे अंदर वो चिंगारी है,
जो एक दिन पूरी दुनिया को दिखेगी।
अभी धुंध है, पर रास्ता साफ होगा।
और उस दिन तुम सबसे पहले खुद को गले लगाओगे,
क्योंकि ये यात्रा आसान नहीं थी—

पर पूरी तरह तुम्हारी थी।
No way! Agasthya ye tumhari baat kar rahi hai kya? :p:
 
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